
अखिलेश यादव ने यूपी की राजनीति में जातिगत समीकरणों को नए सिरे से साधते हुए ठाकुरवाद पर निशाना साधा है। PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) कार्ड के जरिए सपा भाजपा और बसपा दोनों को घेरने में जुटी है। क्या बदलती रणनीति रंग लाएगी?
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
अखिलेश यादव का नया राजनीतिक दांव: PDA के सहारे ठाकुरवाद पर वार
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सियासी समीकरणों का बदलना कोई नई बात नहीं, लेकिन हाल के घटनाक्रमों ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव की रणनीति में साफ बदलाव दिखा दिया है। सितंबर 2024 के सुल्तानपुर एनकाउंटर में STF को ‘स्पेशल ठाकुर फोर्स’ बताकर अखिलेश ने एक संकेत तो दे दिया था, लेकिन अब यह रणनीति और भी स्पष्ट हो चुकी है।
अखिलेश ने अब चित्रकूट, मैनपुरी, जालौन, आगरा और प्रयागराज के थानों में ठाकुर थानाध्यक्षों की संख्या को लेकर भाजपा पर सीधा जातिगत वर्चस्व का आरोप जड़ा है। इसके जरिए वह न सिर्फ भाजपा को पिछड़ा और दलित विरोधी साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि बसपा के परंपरागत वोट बैंक को भी अपने पक्ष में करने की जद्दोजहद में लग चुके हैं।
दलित पॉलिटिक्स की पिच पर सपा का आक्रामक रुख
यह साफ दिख रहा है कि सपा अब सिर्फ पिछड़े और मुस्लिम वोटरों के भरोसे नहीं है, बल्कि दलितों को जोड़ने के लिए हर दांव आजमा रही है। पहले फैजाबाद से अवधेश प्रसाद की जीत और अब आगरा में रामजी लाल सुमन को केंद्र में लाकर अखिलेश यादव जाटव वोट बैंक को साधने की कोशिश में हैं।
राणा सांगा विवाद ने इस संघर्ष को और धार दी है। रामजी लाल सुमन के बयान के बाद करणी सेना और क्षत्रिय संगठनों के विरोध ने इस पूरे मसले को दलित बनाम ठाकुर में तब्दील कर दिया। यही वह मौका था जब अखिलेश ने सुमन के पक्ष में मजबूती से खड़े होकर एक बड़ा सियासी संदेश दिया।
बसपा का संकट और मायावती की बेचैनी
इस रणनीति का असर बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रियाओं में साफ देखा जा सकता है। उन्होंने सपा पर जातिवादी होने का आरोप लगाया, साथ ही 1995 के गेस्ट हाउस कांड से लेकर प्रमोशन में आरक्षण तक के पुराने मुद्दों को फिर से उठाया। यह दर्शाता है कि बसपा को अपने कोर वोट बैंक के खिसकने का डर सता रहा है।
मायावती ने अखिलेश यादव को दलित विरोधी इतिहास की याद दिलाते हुए चेतावनी दी कि सपा दलितों के लिए कभी हितैषी नहीं रही है, बल्कि सिर्फ स्वार्थ के लिए उन्हें इस्तेमाल करती है।
भाजपा पर दोतरफा हमला
जहां सपा बसपा के कोर वोट बैंक में सेंधमारी कर रही है, वहीं भाजपा को भी कठघरे में खड़ा कर रही है। अखिलेश यादव ने स्पष्ट तौर पर आरोप लगाया कि भाजपा शासन में केवल ‘टी-टाइटल’ वाले ही अफसर हैं, जिनका इशारा ठाकुरों की ओर था।
इस कथन से सपा यह बताने की कोशिश कर रही है कि भाजपा सत्ता में हिस्सेदारी नहीं, केवल जातिगत वर्चस्व को बढ़ावा दे रही है। अखिलेश की यह लाइन भाजपा को बैकफुट पर ला सकती है, खासकर जब आगरा जैसे शहरों में करणी सेना के प्रदर्शन और हथियारों की नुमाइश को सरकार की शह बताया जा रहा हो।
रामजी लाल सुमन: दलित राजनीति में सपा का चेहरा
आगरा से सपा सांसद रामजी लाल सुमन का उदय भी इस नई रणनीति का हिस्सा है। सुमन के पक्ष में पहले राम गोपाल यादव, फिर शिवपाल यादव और अंत में अखिलेश यादव खुद पहुंचे। यह साफ संकेत है कि सपा अब दलित नेतृत्व को आगे लाकर बसपा के वर्चस्व को चुनौती देना चाहती है।
सपा की PDA रणनीति: क्या होगी कारगर?
2022 में सपा ने पहली बार PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) का नारा दिया था, लेकिन अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर 37 सीटें जीतीं, जिनमें से 86 प्रतिशत सांसद PDA वर्ग से आते हैं।
सपा ने 17 सुरक्षित सीटों में से 8 पर जीत दर्ज की, जो इस रणनीति की सफलता का प्रारंभिक संकेत है। अब पार्टी इसी फार्मूले को मजबूती से आगे बढ़ा रही है।
सियासत अब जाति नहीं, हिस्सेदारी की हो गई है
जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, यह रणनीति अखिलेश की सोची-समझी चाल नहीं थी, बल्कि परिस्थितियों ने उन्हें यह दिशा दिखाई। अब लड़ाई केवल वोट की नहीं, प्रतिनिधित्व की बन गई है।
PDA वर्गों को सत्ता में हिस्सेदारी देने का वादा कर सपा भाजपा के हिंदुत्व और बसपा के बहुजन आंदोलन के बीच एक नया रास्ता निकालने की कोशिश कर रही है।
क्या सपा का जातिगत नैरेटिव चुनावी फायदे में बदलेगा?
सपा की यह नई रणनीति भाजपा को हिंदू वोटों में बंटवारे और बसपा को दलित वोटों में सेंधमारी के जरिए कमजोर करने की दिशा में काम कर रही है। अब देखना यह होगा कि क्या यह जातिगत नैरेटिव जनमानस में गहराई तक उतरता है या फिर विपक्ष इसे महज राजनीतिक नौटंकी कहकर खारिज कर देता है।
एक बात स्पष्ट है—यूपी की राजनीति अब बदल रही है, और उसमें पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी ही चुनावी जीत की कुंजी बनने वाली है।