
सपा नेता रामजी लाल सुमन ने राणा सांगा को ‘डाकू और लुटेरा’ कहकर राजपूत समाज के स्वाभिमान को ललकारा। जानिए कैसे भड़की बगावत की चिंगारी।
“इतिहास की परछाइयों में झाँकते हुए वर्तमान का अपमान!”
लोकसभा चुनाव 2024 की तपती ज़मीन पर जहां हर दल अपनी पैठ मजबूत करने में लगा है, वहीं बयानों की तपिश ने भी राजनीतिक पारा बढ़ा दिया है। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद रामजी लाल सुमन ने हाल ही में ऐसा बयान दिया, जिसने ना केवल सियासी गलियारों में हलचल मचा दी बल्कि राजपूत समाज को भी आक्रोशित कर दिया।
क्या कहा रामजी लाल सुमन ने?
उत्तर प्रदेश में एक चुनावी जनसभा के दौरान सुमन ने कथित तौर पर कहा—
“राणा सांगा जैसे डाकू, लुटेरे भी समाज के लिए खतरा थे। इनसे भी हमें सीख लेनी चाहिए।”
इस कथन के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर तूफान मच गया। कई लोगों ने इसे इतिहास के गौरवपूर्ण चरित्रों का अपमान बताया।
राणा सांगा कौन थे और क्यों मचा बवाल?
राणा सांगा, अर्थात महाराणा संग्राम सिंह, मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक रहे हैं जो वीरता, स्वाभिमान और हिंदू एकता के प्रतीक माने जाते हैं। बाबर से लड़ी गई खानवा की लड़ाई में उनका योगदान भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। ऐसे योद्धा को “डाकू” कहना, राजपूत समाज को न केवल पीड़ादायक लगा, बल्कि अपमानजनक भी।
राजपूत संगठनों का आक्रोश और सड़कों पर प्रदर्शन
बयान के बाद जैसे ही वीडियो क्लिप वायरल हुआ, राजपूत करणी सेना समेत कई संगठनों ने विरोध दर्ज कराया।
अयोध्या, मथुरा, मैनपुरी, और जयपुर तक में सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किए गए। जगह-जगह सुमन के पुतले जलाए गए और माफी की मांग की गई।
सुमन की सफाई—बयान तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया!
विवाद बढ़ता देख रामजी लाल सुमन ने मीडिया के समक्ष सफाई दी। उन्होंने कहा:
“मैंने राणा सांगा का नाम नहीं लिया था, बल्कि एक ऐतिहासिक दृष्टांत दे रहा था जिसे तोड़-मरोड़कर फैलाया गया। मेरी मंशा किसी समाज को आहत करने की नहीं थी।”
हालांकि, आलोचकों का कहना है कि अगर मंशा साफ थी, तो शब्दों का चयन और उदाहरण सोच-समझ कर किया जाना चाहिए था।
चुनावी समीकरण और जातीय राजनीति की चिंगारी
यह बयान ऐसे समय आया है जब यूपी में जातीय समीकरण बेहद संवेदनशील हैं। समाजवादी पार्टी के दलित-पिछड़ा गठजोड़ को मजबूत करने की कोशिशें चल रही हैं, वहीं भाजपा राजपूत समाज को लामबंद करने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसे में राणा सांगा पर दिया गया बयान एक सामाजिक दरार को गहरा करने वाला साबित हो सकता है।
क्या यह महज़ ‘भूल’ थी या रणनीति?
राजनीति में अक्सर कहा जाता है— “बोलना भी एक कला है और चुप रहना उससे बड़ी रणनीति।”
रामजी लाल सुमन जैसे वरिष्ठ नेता से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वे ऐतिहासिक पात्रों पर टिप्पणी करते समय सतर्कता न बरतें। आलोचक इसे एक सोची-समझी “पोलराइजेशन रणनीति” मान रहे हैं, जिससे जातीय ध्रुवीकरण हो और सपा को लाभ मिले।
रामजी लाल सुमन का यह बयान लोकसभा चुनाव 2024 के शोर में एक मौन प्रश्न की तरह गूंज रहा है—
“क्या इतिहास का अपमान राजनीति के लिए जायज़ हो गया है?”
राजपूत समाज की भावनाएं आहत हुई हैं, और सुमन की सफाई से यह ग़लतफ़हमी खत्म नहीं हुई है। यह देखना शेष है कि चुनावी नतीजों पर इस विवाद का कितना असर पड़ेगा।
➡️अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट