चित्रकूट जिले के इटवा डुडैला पीएचसी में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल, अस्पताल पर ताला और ग्रामीण दर-दर भटकते नजर आए। “चलो गाँव की ओर ; जीत आपकी” संस्था की पड़ताल में सामने आई सरकारी लापरवाही की पोल।
संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
चित्रकूट/मानिकपुर (पाठा क्षेत्र से रिपोर्ट)
सरकार चाहे जितना दावा कर ले कि “स्वास्थ्य सेवा सबके लिए”, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे एकदम जुदा है। खासकर बुंदेलखंड के चित्रकूट जैसे पठारी और आदिवासी इलाकों में तो हालात बद से बदतर हैं। कुछ ऐसा ही मंजर देखने को मिला मानिकपुर तहसील के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इटवा डुडैला में, जहां अस्पताल के गेट पर ताला लटका मिला और आस-पास के कोल आदिवासी इलाज के लिए भटकते नजर आए।
जिम्मेदार कौन? अस्पताल बंद और झोलाछाप चालू!
सबसे अहम बात यह है कि सरकारी अस्पतालों की बंदिशों का फायदा उठा रहे हैं झोलाछाप डॉक्टर, जो खुलेआम गरीबों की जेब काट रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में ग्रामीणों को उनके पास जाना मजबूरी बन गया है। गांव के रामलाल कहते हैं— “का करैं सरकारिया अस्पताल बंद है, अब बचे के खातिर जहां दवाई मिली, ओहिं जाबें पड़त है।”
मौके पर पहुंचे “चलो गाँव की ओर ; जीत आपकी” के अध्यक्ष, खोली पोल
11 जुलाई 2025 को “चलो गाँव की ओर ; जीत आपकी” अभियान के संस्थापक संजय सिंह राणा जब इटवा डुडैला पीएचसी पहुंचे तो वहाँ ताला जड़ा मिला। जानकारी मिलते ही उन्होंने सीएचसी मानिकपुर के डॉक्टर शेखर वैश्य और एसडीएम मानिकपुर मोहम्मद जसीम को सूचित किया। एसडीएम ने इस बारे में मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) भूपेश द्विवेदी को जानकारी दी, जिन्होंने लापरवाही पर कार्रवाई का आश्वासन दिया।
चिकित्सक की लीपापोती—“मैं तो प्रैक्टिकल में था”
जब पत्रकारों ने पीएचसी के चिकित्सक एस. के. वर्मा से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि वे “प्रैक्टिकल” में हैं, इसलिए अस्पताल में नहीं थे। वहीं उनका दावा था कि “अन्य डॉक्टर अस्पताल में मौजूद हैं।” लेकिन यह दावा ज़मीनी सच से कोसों दूर निकला। दरअसल, अस्पताल पूरी तरह बंद था और कोई भी मेडिकल स्टाफ नहीं दिखा।
थोड़ी देर बाद, जब संस्था के अध्यक्ष मौके पर डटे रहे, तो डॉक्टर वर्मा खुद आकर ताला खोलते नजर आए। यह दृश्य तमाचा था उन सरकारी दावों पर जो स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूती का दावा करते हैं।
सरकारी योजनाओं की जमीनी हकीकत
यह सवाल सिर्फ इटवा डुडैला का नहीं है। पूरे चित्रकूट के पठारी इलाकों में पीएचसी और सीएचसी अधिकांश समय ताले में बंद रहते हैं। सरकारी फाइलों में सब कुछ चालू है, लेकिन हकीकत में कोल-प्रधानी, सहरिया, और अन्य आदिवासी समुदायों के लोग इलाज के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
अब सवाल उठता है…
- क्या सरकार इन लापरवाह डॉक्टरों पर कोई सख़्त कार्रवाई करेगी?
- क्या अस्पतालों को सिर्फ “नाम का बोर्ड” बनाकर छोड़ दिया जाएगा?
- क्या आदिवासी बहुल इलाकों की ये पीड़ाएं सिर्फ चुनावी भाषणों तक ही सीमित रहेंगी?
सरकार के पास जवाब होंगे या नहीं, यह समय बताएगा। लेकिन एक बात तय है— अगर यही हाल रहा, तो ग्रामीणों की आस्था सरकारी अस्पताल से उठ जाएगी और झोलाछापों की दुकानें फलती-फूलती रहेंगी।