संजय कुमार वर्मा की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश के बरेली, कानपुर, लखनऊ और अन्य शहरों के वृद्धाश्रमों में रह रहे सैकड़ों बुजुर्ग अपने बच्चों की बाट जोह रहे हैं। यह रिपोर्ट फादर्स डे पर उन बेसहारा पिता की व्यथा को उजागर करती है जिन्हें उनके ही बच्चों ने तन्हा छोड़ दिया।
“एक पिता चार बच्चों को पाल लेता है, पर चार बच्चे मिलकर भी एक पिता को नहीं संभाल पाते…”
उत्तर प्रदेश के बरेली स्थित काशीधाम वृद्धाश्रम और लाल फाटक क्षेत्र के वृद्धजन आवास गृह में रह रहे सैकड़ों बुजुर्गों की आंखों में एक जैसी प्रतीक्षा है—अपने बच्चों की वापसी की। इनमें से कई बुजुर्ग ऐसे हैं जिन्हें उनके अपने ही बेटे और बेटियां वर्षों पहले यहां छोड़कर गए और फिर कभी हालचाल तक नहीं पूछा।
गोपाल कृष्ण भल्ला की खामोश प्रतीक्षा
काशीधाम वृद्धाश्रम में 75 वर्षीय गोपाल कृष्ण भल्ला आज भी उस दरवाजे को निहारते रहते हैं, जिससे उनका बेटा दस साल पहले उन्हें छोड़कर विदेश चला गया था। जीवन भर की कमाई बेटे की पढ़ाई में खर्च कर दी, पर बुढ़ापे में उसी बेटे का सहारा नहीं मिला। पत्नी के निधन के बाद भल्ला पूरी तरह अकेले हो गए।
राकेश अग्रवाल: एक और टूटी उम्मीद
इसी आश्रम के राकेश अग्रवाल की कहानी भी कम दर्दनाक नहीं है। पत्नी के गुजरने के बाद उनका बेटा उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ गया और यह कहकर चला गया कि जल्दी लौटेगा। लेकिन सालों बाद भी राकेश बेटे की एक कॉल के लिए तरसते हैं।
शाहजहांपुर से लेकर लखनऊ तक: एक जैसी कहानियां
श्याम प्रसाद की अधूरी उम्मीद
लाल फाटक स्थित वृद्धजन आवास गृह में रहने वाले श्याम प्रसाद (बदला हुआ नाम) का भी ऐसा ही अनुभव रहा। उनके दो बेटे हैं, जिनमें से एक कोविड के पहले आखिरी बार मिलने आया था और वृद्धावस्था पेंशन के ₹17,000 लेकर चला गया। उसके बाद वह फिर नहीं लौटा। दूसरा बेटा कभी हालचाल तक पूछने नहीं आया।
प्रेम प्रकाश: जो फेरी लगाकर बेटे को पढ़ाया
तीन साल पहले प्रेम प्रकाश को उनकी पत्नी और बेटा बस में बैठाकर वृद्धाश्रम छोड़ गए। उस दिन के बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। प्रेम प्रकाश कहते हैं, “जिस बेटे के लिए गलियों में सामान बेचा, जिसने हर सुख पाया, आज वही मुझे अपना नहीं मानता।”
कानपुर, लखनऊ और बनारस के वृद्धाश्रमों का हाल
बरेली ही नहीं, बल्कि कानपुर, लखनऊ, वाराणसी और मेरठ के वृद्धाश्रमों में भी हालात कुछ खास अलग नहीं हैं।
कानपुर के प्रेमनारायण वृद्धाश्रम में 92 वर्षीय शिवप्रसाद मिश्रा रह रहे हैं, जिनकी चार बेटियां अमेरिका और कनाडा में बस चुकी हैं। वे साल में एक बार फ़ोन करके यह पूछ लेती हैं, “पिता जी अभी जीवित हैं?”
लखनऊ के रामाश्रय वृद्धालय में 82 वर्षीय मुन्नालाल वर्मा के तीन बेटे हैं, जो शहर में ही रहते हैं, पर कभी मिलने नहीं आते।
वाराणसी के काशी सेवा निकेतन में रहने वाली बिंदु देवी, जिनकी तीन बेटियां हैं, बताती हैं कि “पिता के जाने के बाद बेटी का रिश्ता भी मां से नहीं रहा।”
वृद्धाश्रम बना नया परिवार
काशीधाम की प्रबंधक कांता गंगवार बताती हैं कि आश्रम में फिलहाल 147 बुजुर्ग रह रहे हैं। लगभग सभी को उनके अपनों ने त्याग दिया है। लेकिन अब इन वृद्धाश्रमों में स्टाफ ही उनका परिवार बन गया है। कोई उन्हें “बेटा” कहता है, कोई “बेटी”। फादर्स डे जैसे मौकों पर जब पूरा देश पिता को धन्यवाद देता है, इन वृद्धों का अकेलापन और गहरा हो जाता है।
फादर्स डे पर एक सवाल समाज से
जब बच्चे अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या आधुनिकता की दौड़ में रिश्तों की गर्माहट खत्म हो गई है? क्या “सेल्फ-केयर” के नाम पर “पैरंटल-केयर” को तिलांजलि दी जा रही है?
उत्तर प्रदेश के वृद्धाश्रमों में रहने वाले हजारों बुजुर्ग आज भी आशा का दामन थामे हुए हैं। शायद कोई लौट आए, कोई पुकार ले। लेकिन हर गुजरते दिन के साथ उनकी आंखों की चमक फीकी होती जा रही है।
फादर्स डे जैसे मौके न सिर्फ खुशियां, बल्कि इन बुजुर्गों के लिए अंतर्मन की चीख बनकर आते हैं। हमें यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम सच में उन बच्चों में शामिल हैं जो अपने पिता की उंगली थामकर चलना तो जानते हैं, लेकिन उनका हाथ थामे रखना भूल गए हैं?