संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
राजनीति में अवसर और सिद्धांत के बीच संघर्ष हमेशा से रहा है। लेकिन जब कोई नेता उस दल और विचारधारा को ही नीचा दिखाने लगे, जिसने उसे पहचान, प्रतिष्ठा और शक्ति दी हो—तो यह न केवल राजनीतिक अवसरवादिता का उदाहरण है, बल्कि नैतिक गिरावट का स्पष्ट संकेत भी है।
बहुजन समाज पार्टी से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले आर के सिंह पटेल आज जब सार्वजनिक मंचों से यह कहने लगते हैं कि बसपा खत्म हो चुकी है, तो यह सिर्फ बयान नहीं होता, यह उस विचारधारा के खिलाफ एक सोची-समझी साजिश होती है, जिसने उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचाया।
बसपा: केवल एक पार्टी नहीं, एक सामाजिक आंदोलन
बसपा का जन्म सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए हुआ था। यह पार्टी बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर, मान्यवर कांशीराम और बहन कु. मायावती की विचारधारा की वाहक रही है। इस विचारधारा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसे कोई बयान या राजनीतिक झटका खत्म नहीं कर सकता। बसपा एक आंदोलन है—जो हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज़ है, और ऐसी आवाज़ें किसी चुनावी हार-जीत से दबती नहीं, बल्कि और मुखर होती हैं।
आर के पटेल: विचारधारा से सत्ता तक, फिर वापसी की बेचैनी
आर के सिंह पटेल ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत बसपा से की, विधायक बने, मंत्री बने और बहुजन समाज का भरपूर समर्थन पाया। उनका नाम बांदा और चित्रकूट के बहुजन समाज में विश्वास का पर्याय बन गया था। लेकिन सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हुए जब उन्होंने बसपा छोड़ी, और सपा, फिर भाजपा में जगह बनाई—तो यह साफ हो गया कि विचारधारा उनके लिए प्राथमिकता नहीं, सिर्फ सत्ता की सीढ़ी थी।

आज जब वही आर के पटेल बसपा की आलोचना करते हैं, तो यह आलोचना नहीं, कृतघ्नता है। बहुजन समाज जिसने उन्हें नेता बनाया, आज उनके शब्दों से अपमानित महसूस कर रहा है।
क्या सत्ता का उपयोग निजी लाभ के लिए किया गया?
जिन आर के सिंह पटेल ने खुद को बहुजन समाज का प्रतिनिधि बताया, वे सत्ता में रहकर सरकारी जमीनों पर कॉलेज निर्माण, बालू खदान के ठेके, सड़क निर्माण में अनियमितताएं और मेडिकल कॉलेज घोटाले जैसी चर्चाओं में फंसते नजर आए। सत्ता का लाभ लेना एक बात है, लेकिन जनता के नाम पर सत्ता पाकर जनता से मुंह मोड़ लेना, राजनीतिक नैतिकता का पतन है।
बसपा को खत्म बताने वाले खुद खत्म हो रहे हैं
2024 के लोकसभा चुनावों में आर के सिंह पटेल को भारी हार का सामना करना पड़ा। यह हार केवल एक राजनीतिक पराजय नहीं थी, यह उनके बदलते बयानों, विचारधारा से विचलन और जनता के विश्वास को तोड़ने की सज़ा थी।
जो नेता आज यह कह रहे हैं कि बसपा खत्म हो चुकी है, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि विचारधाराएं वोटों से नहीं मरी जातीं। यह वही पार्टी है जिसने उत्तर प्रदेश की सत्ता तक बहुजन समाज को पहुँचाया, जिसने दलित-पिछड़े समाज को सम्मान और प्रतिनिधित्व दिलाया।
राजनीतिक आलोचना बनाम सामाजिक अपमान
राजनीतिक असहमति एक लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन जब वह विचारधारा और समाज का अपमान बन जाए, तब बहुजन समाज के लिए वह अस्वीकार्य हो जाता है। यह केवल बहन मायावती या बसपा के खिलाफ नहीं, बल्कि उस संपूर्ण बहुजन समुदाय के आत्मसम्मान पर चोट है, जिसने आर के सिंह पटेल जैसे नेताओं को सिर पर बिठाया।
समय चक्र बदलता है: अटल बिहारी वाजपेयी की सीख
स्मरण रहे, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था—
“सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन देश और उसकी संस्थाएं बनी रहेंगी…”
उसी तरह राजनीतिक पार्टियां भी उठती-गिरती रहती हैं, लेकिन विचारधारा टिकती है, और जब वह समाज के सबसे कमजोर तबकों से जुड़ी हो, तो और मजबूत होती है।
बहुजन समाज अब चुप नहीं रहेगा
बहुजन समाज ने चुप रहकर बहुत कुछ देखा और सहा है। लेकिन अब जब उसकी विचारधारा, उसके संघर्ष और उसकी पार्टी को कमतर बताया जा रहा है, तो यह समुदाय एकजुट होकर जवाब देने को तैयार है।
आर के सिंह पटेल और जैसे अन्य नेताओं को अब यह समझना होगा कि राजनीतिक जीवन केवल पद और सत्ता से नहीं चलता—बल्कि उस समाज के भरोसे से चलता है, जिसे उन्होंने आज ठगा महसूस कराया है।
बसपा खत्म नहीं हुई है, लेकिन आपका विश्वास जरूर खत्म हो गया है। अगला चुनाव यह साफ कर देगा कि किसका सफर जारी है और किसका अंत करीब।