बांदा और चित्रकूट के राजनीतिक हालात पर एक विश्लेषणात्मक आलेख जिसमें पूर्ववर्ती सरकारों के भ्रष्टाचार, रसूखदार नेताओं की दबंगई, और प्रशासनिक तंत्र पर पड़ते असर को उजागर किया गया है। साथ ही आम जनमानस से जागरूक नागरिक की भूमिका निभाने का आह्वान।
संजय सिंह राणा
“जुल्म उतना ही करो, जितना खुद सह सको”—यह महज एक चेतावनी नहीं, बल्कि उन नेताओं के लिए एक आईना है जिन्होंने अपने पद और रसूख के नशे में कानून और नैतिकता की धज्जियां उड़ा दीं। उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट जिलों की सियासी सरजमीं ऐसे कई उदाहरणों से भरी पड़ी है, जहां राजनीति ने सिर्फ विकास का नहीं, बल्कि विनाश का भी रूप धारण किया।
सत्ता का नशा और भ्रष्टाचार की भूख
राजनीति और भ्रष्टाचार का गठजोड़ कोई नई बात नहीं। लेकिन जब यह गठजोड़ ज़मीन कब्जाने, खनिज संपदा लूटने और आम नागरिकों के जीवन से खेलने लगे, तो सवाल उठते हैं—और उठने भी चाहिए। पूर्ववर्ती सरकारों के कई रसूखदार नेताओं ने सत्ता की कुर्सी का इस्तेमाल अपने निजी स्वार्थों के लिए किया। कभी भू-माफिया बनकर, तो कभी खनन माफिया बनकर, इन्होंने न केवल सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया, बल्कि प्रशासनिक संस्थाओं की नींव को भी हिला डाला।
जब जनता ने तोड़ दिया भरोसे का पुल
बांदा और चित्रकूट में ऐसे ही नेताओं के खिलाफ जनाक्रोश साफ देखा गया है। सत्ता में रहते हुए जिन्होंने केवल खुद की तिजोरियां भरीं, वही नेता आज जनसंपर्क के लिए दर-दर भटकते नजर आ रहे हैं। लेकिन जनता अब समझ चुकी है—नेताओं के वादे, उनके झूठे विकास के दावे और उनके नैतिक पतन की सच्चाई।
नरैनी और मऊ मानिकपुर की चर्चित कहानियां
2007 में नरैनी से बसपा विधायक बने पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी का नाबालिग से दुष्कर्म का मामला जनता को आज भी याद है। सत्ता के संरक्षण में भी उन्हें जेल जाना पड़ा, जिससे स्पष्ट होता है कि जब पाप का घड़ा भरता है, तो उसे कोई बचा नहीं सकता।
वहीं मऊ मानिकपुर से पूर्व विधायक और बसपा सरकार में मंत्री रहे दद्दू प्रसाद पर भी गंभीर आरोप लगे। ग्रामसभा की जमीन पर अवैध कब्जा, महिला उत्पीड़न और पद के दुरुपयोग के मामले सिर्फ अफवाह नहीं थे—बल्कि वे घटनाएं थीं, जिन्होंने उस वक्त की राजनीतिक नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े किए। सबसे चिंताजनक तथ्य यह रहा कि उनके खिलाफ आज तक कोई सख्त कार्रवाई नहीं हो सकी, जो न्याय की असमानता और जातिवाद के आरोपों को और गहराता है।
जब वर्तमान सत्ता भी वही गलियां दोहराने लगे
वर्तमान सत्ताधारी दल के विधायक प्रकाश द्विवेदी पर जिला प्रशासन और पुलिस अधिकारियों से हाथापाई का गंभीर आरोप है। कहा जाता है कि उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों को थप्पड़ मारने से भी गुरेज़ नहीं किया। सवाल यह उठता है कि यदि विधायक ही कानून के रक्षक अधिकारियों पर हाथ उठाने लगें, तो आम जनता खुद को कैसे सुरक्षित महसूस करेगी?
समय का चक्र और प्रशासनिक स्मृति
नेता अक्सर भूल जाते हैं कि वे पद पर कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न पहुंच जाएं, लेकिन शासन प्रशासन के अधिकारी स्थायित्व के साथ काम करते हैं। कल जिन अफसरों पर रौब झाड़ा था, आज उन्हीं से हाथ जोड़ने की नौबत आ जाती है। समय बदलता है, पर प्रशासनिक स्मृति बनी रहती है।
जनता का दायित्व: सोच समझकर करें चयन
यह जरूरी हो गया है कि आम जनमानस सिर्फ जाति, धर्म या भावनात्मक मुद्दों के आधार पर नहीं, बल्कि ईमानदारी, प्रशासनिक सहयोग और जनसेवा के आधार पर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे। नेता चुनाव जीतने के बाद अक्सर गायब हो जाते हैं, लेकिन जिला प्रशासन और पुलिस के जिम्मेदार अधिकारी जनता के साथ हमेशा खड़े रहते हैं।
सम्मान वहीं जहां विश्वास हो
नेताओं को यह समझना होगा कि प्रशासनिक ढांचे को नीचा दिखाकर वे सिर्फ तात्कालिक विजय हासिल कर सकते हैं, दीर्घकालिक नहीं। वहीं जनता को भी यह ध्यान रखना होगा कि सम्मान उन्हीं को देना चाहिए जो वाकई में जनसेवा करते हैं—न कि उन्हें जो सिर्फ सत्ता की भूख में नैतिकता को कुचलते हैं।
“सरकारें आती हैं, जाती हैं… लेकिन प्रशासनिक तंत्र बना रहता है—इसे नीचा दिखाने की गलती ना करें, क्योंकि इतिहास सब कुछ याद रखता है।”