बांदा जिले में दुष्कर्म और पॉक्सो एक्ट के तहत अपराधों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी। पांच महीनों में दर्ज हुए 61 मामले, मासूम बच्चियों तक नहीं सुरक्षित। पुलिस कार्रवाई के बावजूद रोकथाम पर सवाल।
संजय सिंह राणा के साथ राधेश्याम प्रजापति की रिपोर्ट
बांदा(उत्तर प्रदेश)। चित्रकूट धाम मंडल के जिलों में दुष्कर्म और पॉक्सो (POCSO) एक्ट से जुड़े मामलों की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। खासकर बांदा जनपद लगातार इन अपराधों में शीर्ष पर बना हुआ है। जनवरी से मई 2025 तक, मात्र पांच महीनों में मंडल में पॉक्सो के 157 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 61 केस अकेले बांदा जिले से हैं। यह संख्या न सिर्फ नारी सुरक्षा पर गंभीर सवाल उठाती है, बल्कि पुलिस और प्रशासन की सशक्तिकरण मुहिम की हकीकत भी उजागर करती है।
दरिंदगी का शिकार मासूम, चिल्ला थाना क्षेत्र में एक और बच्ची की मौत
सबसे हृदयविदारक मामला चिल्ला थाना क्षेत्र से सामने आया, जहां एक मासूम बच्ची दरिंदों की हैवानियत का शिकार बनी और इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। यह घटना बताती है कि आरोपी अब उम्र नहीं देख रहे — नाबालिग बच्चियां तक इन घिनौने अपराधों का शिकार बन रही हैं।
महज आंकड़े नहीं, हर केस एक दर्दनाक कहानी
बांदा में हर महीने औसतन 31 पॉक्सो से संबंधित घटनाएं हो रही हैं, यानी हर दिन एक से अधिक बच्ची की अस्मिता लूटी जा रही है। वहीं, पूरे मंडल में पांच महीनों में 29 दुष्कर्म के मामले भी दर्ज हुए हैं। अकेले बांदा में हर महीने कम से कम दो महिलाएं दुष्कर्म का शिकार बन रही हैं।
महज कार्रवाई नहीं, रोकथाम की जरूरत
पीड़ितों की शिकायत के बाद पुलिस सक्रिय होकर मुकदमा दर्ज कर रही है और कई मामलों में आरोपियों को जेल भी भेजा गया है। लेकिन सवाल यह है कि अपराध की पृष्ठभूमि तैयार होने से पहले पुलिस और समाज कहां थे?
पुलिस को अक्सर इन मामलों की भनक तभी लगती है जब पीड़िता या उसका परिवार थाने का रुख करता है। कई बार आरोपी करीबी रिश्तेदार या जान-पहचान के होते हैं, जिससे समय रहते हस्तक्षेप नहीं हो पाता।
प्रभारी डीआईजी ने माना – स्थिति चिंताजनक
चित्रकूट धाम परिक्षेत्र के प्रभारी डीआईजी पलाश बंसल ने माना कि बांदा की जनसंख्या अधिक होने के चलते अपराध के मामले ज्यादा प्रकाश में आते हैं। उन्होंने सभी थानाध्यक्षों और अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि घटनाओं पर त्वरित और सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही अपराधियों की निगरानी और सत्यापन प्रक्रिया को भी तेज करने के लिए कहा गया है।
यह सिर्फ कानून का मामला नहीं है, बल्कि सामाजिक जागरूकता, नैतिकता और सुरक्षा तंत्र की विफलता की तस्वीर है। पुलिस के आंकड़े तो सिर्फ दर्ज मामलों को दर्शाते हैं, लेकिन हकीकत इससे भी ज्यादा भयावह हो सकती है। वक्त है कि समाज, पुलिस और प्रशासन मिलकर ऐसी मानसिकता के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ें।