ऑपरेशन सिंदूर पर सियासी बहस जोरों पर है। भाजपा इसे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बना रही है, जबकि विपक्ष इसे विदेश नीति की विफलता बता रहा है। जानिए इस सियासी रणनीति के पीछे की असल तस्वीर।
अनिल अनूप
जब शौर्य पर सवाल उठते हैं
हाल के दिनों में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ न सिर्फ सामरिक दृष्टि से, बल्कि राजनीतिक परिदृश्य में भी एक गूढ़ प्रतीक बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार जनसभाओं में इसकी चर्चा कर रहे हैं, और हर सभा में तालियों और नारों की गूंज सुनाई देती है। दूसरी ओर, कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष इस सैन्य कार्रवाई को सरकार की विदेश नीति की विफलता करार देने में जुटा है।
विपक्ष की आपत्तियां: कूटनीति में अकेलापन या असफलता?
विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग पड़ा, जबकि पाकिस्तान के साथ चीन, तुर्किये और अजरबैजान जैसे देश सक्रिय रूप से खड़े रहे। हालांकि, विपक्ष भारतीय सेना के पराक्रम को सलाम करता है, लेकिन सरकार की रणनीतिक तैयारियों और कूटनीतिक प्रयासों को नाकाम ठहराता है। यहां सवाल यह उठता है—क्या सेना को सरकार से अलग करके देखा जा सकता है?
संसद सत्र की मांग: लोकतांत्रिक विमर्श या सियासी चाल?
तृणमूल, कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव गुट), वाम दल और समाजवादी पार्टी संसद के विशेष सत्र की मांग कर रहे हैं। उद्देश्य साफ है—मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करना और विपक्ष की चिंताओं को संसद के रिकॉर्ड में दर्ज कराना। बेशक, लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च मंच है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या एक सशस्त्र ऑपरेशन के बीच विशेष सत्र बुलाना यथोचित है?
ऑपरेशन सिंदूर की राजनीतिक ब्रांडिंग
भाजपा ने इस सैन्य अभियान को भावनात्मक और राजनीतिक स्तर पर एक प्रतीक में बदल दिया है। 9 जून से पार्टी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर आधारित एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करने जा रही है। यह तारीख इसलिए अहम है क्योंकि 2024 में इसी दिन मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। पार्टी घर-घर जाकर महिलाओं को सिंदूर उपहार में देगी, जो एक सांस्कृतिक और वैवाहिक प्रतीक होने के साथ अब एक राजनीतिक संदेशवाहक भी बन चुका है।
क्या सिंदूर भावनात्मक उपकरण बन गया है?
यहां यह प्रश्न भी उठता है कि क्या सिंदूर जैसे पवित्र प्रतीक का राजनीतिक प्रयोग उचित है? भाजपा इसे मातृभूमि की रक्षा और वीरता का प्रतीक बता रही है। वहीं, आलोचक इसे भावनात्मक ध्रुवीकरण का औजार मानते हैं, जिससे मतदाताओं के मन में राष्ट्रवाद की भावना को जगाया जा सके।
भविष्य की रणनीति: अभियान, प्रचार और डॉक्यूमेंट्री
भाजपा का अभियान सिर्फ प्रतीकों तक सीमित नहीं रहेगा। केंद्रीय मंत्री, सांसद और कार्यकर्ता पदयात्राएं करेंगे, बूथ स्तर तक जनसंपर्क साधेंगे और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी बनेंगी। इन फिल्मों के जरिए उन विभागों और कर्मियों को श्रद्धांजलि दी जाएगी, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस ऑपरेशन में सहयोग दिया। यह प्रयास न केवल प्रचार का हिस्सा है, बल्कि सेना के परिश्रम को जनमानस में स्थापित करने की कोशिश भी है।
क्या राजनीति देशहित से बड़ी हो गई है?
सवाल यह नहीं है कि क्या ‘ऑपरेशन सिंदूर’ सफल रहा या नहीं, बल्कि यह है कि क्या हम एक सैन्य अभियान को चुनावी हथियार बना सकते हैं? पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करवाने की कोशिशें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए, लेकिन घरेलू राजनीति में शौर्य और राष्ट्रवाद के सहारे चुनावी समीकरण साधना कहां तक उचित है?
देश को यह तय करना होगा कि सियासत की ज़रूरतें देशभक्ति से बड़ी नहीं हो सकतीं। क्योंकि सेना के बलिदान को सिर्फ चुनावी मुद्दा बनाना, उस त्याग की आत्मा के साथ अन्याय है।