अनिल अनूप
हर वर्ष मई महीने का दूसरा रविवार दुनिया भर में ‘मातृ दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह दिन माँ के प्रेम, त्याग, बलिदान और निस्वार्थ सेवा को याद करने और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर बन चुका है। बाज़ारों में विशेष उपहारों की भरमार होती है, स्कूलों में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, सोशल मीडिया पर माँ के नाम भावनात्मक पोस्ट्स की बाढ़ आती है। लेकिन इस उत्सव के पीछे छिपे गहरे अर्थ को कितने लोग सचमुच आत्मसात करते हैं?
माँ शब्द अपने आप में एक संस्कृति है—एक भाव है, एक अनुभूति है, जिसे शब्दों में बाँधना लगभग असंभव है। माँ जीवन की वह पहली पाठशाला होती है, जो बिना किताबों के शिक्षा देती है। वह पहला स्पर्श होती है, जिसमें सुरक्षा और ममता का अटूट बंधन होता है। माँ वह मौन शक्ति है जो परिवार, समाज और सभ्यता को टिकाए रखने में अहम भूमिका निभाती है, लेकिन जिस भूमिका को अक्सर ‘स्वाभाविक’ मान कर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
बाज़ारवाद में खोती संवेदनाएं
मातृ दिवस को लेकर जो उत्सवधर्मिता दिखाई देती है, उसमें एक ओर जहां माँ के प्रति प्यार का इज़हार है, वहीं दूसरी ओर बाजारवाद की चपेट में आई एक भावनात्मक अवधारणा भी है। बड़े ब्रांड्स ‘मॉम स्पेशल’ ऑफर्स निकालते हैं, ऑनलाइन साइट्स पर ‘गिफ्ट फॉर मदर’ की श्रेणियाँ बनती हैं, और लोग इसे मनाने के लिए पैसे खर्च कर के अपनी “कर्तव्यपूर्ति” समझ लेते हैं।
क्या एक दिन फूल देकर या सोशल मीडिया पोस्ट लिखकर हम माँ के प्रति अपने सारे दायित्वों से मुक्त हो सकते हैं? क्या वो माँ, जो बिना किसी शर्त के जीवन भर हमारी चिंता करती है, उसके लिए एक दिन की संवेदना पर्याप्त है? मातृ दिवस मनाना गलत नहीं है, लेकिन इसे केवल प्रतीकात्मक उत्सव बना देना निश्चित ही उस ममता के साथ अन्याय है, जो प्रतिदिन, निरंतर, निःस्वार्थ भाव से बहती रहती है।
माँ: आधुनिक समय में बदलती भूमिकाएं
21वीं सदी की माँ अब सिर्फ रसोई या बच्चों की देखभाल तक सीमित नहीं है। वह अब आर्थिक रूप से भी सशक्त है, घर और कार्यालय दोनों जगह अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रही है। लेकिन इसके साथ ही उस पर अपेक्षाओं का दबाव भी बढ़ गया है—“अच्छी माँ”, “अच्छी पत्नी”, “अच्छी बहू” और अब “वर्किंग वूमन”—इन तमाम भूमिकाओं को निभाते हुए वह अकसर अपनी पहचान और आत्म-देखभाल को भूल जाती है।
आज ज़रूरत है कि समाज इस बहुआयामी माँ की नई चुनौतियों को समझे। मातृत्व अब सिर्फ शिशु पालन तक सीमित नहीं रहा, यह मानसिक, सामाजिक और पेशेवर संतुलन की परीक्षा बन चुका है। यदि हम माँ को सशक्त देखना चाहते हैं, तो उसे केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और बराबरी का अधिकार देना होगा।
ग्रामीण भारत और उपेक्षित मातृत्व
शहरों में मातृ दिवस की धूम है, लेकिन भारत का एक बड़ा तबका गाँवों में बसता है, जहाँ माँ अब भी खेतों में काम करती है, घर संभालती है, और कई बार घरेलू हिंसा व सामाजिक उपेक्षा की शिकार होती है। वहाँ न कोई मातृ दिवस मनाया जाता है, न कोई सोशल मीडिया पोस्ट बनती है। उन माओं के हिस्से में सिर्फ जिम्मेदारियाँ आती हैं—सर झुकाकर निभाने वाली।
ऐसी माताओं के लिए मातृ दिवस सिर्फ एक ‘कैलेंडर तारीख’ है। सवाल यह है कि क्या हम इन अदृश्य माओं को सम्मान देने की पहल करेंगे? क्या हम सरकारी नीतियों, स्वास्थ्य सेवाओं और सामाजिक दृष्टिकोण को इस दिशा में बदलने का संकल्प लेंगे?
मातृत्व का पुनर्मूल्यांकन
माँ को अक्सर त्याग और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में देखा जाता है, जो सही भी है, लेकिन क्या वह हमेशा त्याग करने के लिए ही बनी है? क्या उसे भी नहीं चाहिए अपने सपनों को जीने का अवसर? मातृत्व के साथ-साथ नारीत्व की गरिमा को भी बनाए रखने की ज़रूरत है। एक माँ भी पहले एक स्त्री है, जिसके अपने विचार, इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ हैं।
मातृत्व का सम्मान तभी सार्थक होगा, जब हम माँ को भी एक संपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्वीकारेंगे—न कि केवल त्याग की मूर्ति। हमें माँ के योगदान को ‘कर्तव्य’ मानने की आदत से बाहर आना होगा, और उसे ‘चयन’ के रूप में देखने की संवेदनशीलता विकसित करनी होगी।
मातृ दिवस की असल प्रेरणा
मातृ दिवस की शुरुआत अमेरिका में “अन्ना जार्विस” नाम की महिला ने अपनी माँ के सम्मान में की थी, लेकिन खुद अन्ना इस उत्सव के बाज़ारीकरण से दुखी हो गई थीं। आज उनका वह दर्द और भी प्रासंगिक हो गया है। यह दिन हमें स्मरण कराता है कि माँ सिर्फ एक रिश्ता नहीं, बल्कि एक विचार है—जो जीवन की हर परीक्षा में साथ खड़ा रहता है।
यदि हम सचमुच मातृ दिवस की आत्मा को समझना चाहते हैं, तो हमें हर दिन माँ के प्रति आदर भाव रखना होगा। उनके श्रम को स्वीकार करना, उन्हें अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का मौका देना, उनकी इच्छाओं को समझना और सबसे बढ़कर उन्हें यह विश्वास देना कि वे सिर्फ सेवा के लिए नहीं बनी हैं—बल्कि वे समाज का आधार हैं।
उत्सव से आगे बढ़कर उत्तरदायित्व तक
मातृ दिवस को केवल फूल, कार्ड और सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित न रखें। इसे माँ के जीवन को समझने, उनके संघर्ष को स्वीकारने और उनके सपनों को पंख देने के संकल्प दिवस में बदलें। हर माँ को यह अहसास हो कि वह सिर्फ एक दिन की श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि हर दिन के सम्मान की अधिकारी है।
माँ का सम्मान उनके जीवनकाल में हो—उनके जाने के बाद नहीं। उनके सिर पर हाथ रखने का सुख, उनकी आँखों में सुकून भर देने वाली बात, और उनके थके हुए पैरों को आराम देना… यही सच्चा मातृ दिवस है।