-अनिल अनूप
पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा है, और पत्रकार वह संजीवनी हैं जो इस आत्मा को चेतन बनाए रखते हैं। परंतु आज उत्तर प्रदेश में जो दृश्य उभर रहा है, वह न केवल इस आत्मा को घायल करता है बल्कि उसे धीरे-धीरे अपाहिज भी बना रहा है।
हर जिले में एक नहीं, दर्जनों पत्रकार संगठन… और हर संगठन में दर्जनों स्वयंभू ‘जिलाध्यक्ष’, ‘प्रदेश महासचिव’, ‘मुख्य संरक्षक’ जैसे भव्य पदनाम! इन संगठनों का उद्देश्य पत्रकार हित, प्रेस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी या पत्रकार सुरक्षा न होकर अधिकतर मामलों में एक ही लक्ष्य प्रतीत होता है — इलाके में दबदबा कायम रखना और सत्ता, पुलिस व प्रशासन पर प्रभाव जमाना।
पत्रकार संगठनों की बाढ़: प्रेस कार्ड का कारोबार
लखनऊ, कानपुर, गोरखपुर, प्रयागराज जैसे बड़े शहरों से लेकर सोनभद्र, चित्रकूट, जालौन जैसे सीमावर्ती जिलों तक, ऐसे संगठन तेजी से पनप रहे हैं। इन संगठनों में काम करने वाले कई पदाधिकारी प्रेस एक्ट से न केवल अनभिज्ञ हैं, बल्कि पत्रकारीय मर्यादाओं और दायित्वों का नाम तक नहीं जानते।
इनका असल कार्य है —
- फर्जी प्रेस कार्ड जारी करना,
- सरकारी विज्ञापन के लिए फर्जी पोर्टल चलाना,
- पुलिस प्रशासन पर “पत्रकार संगठन” के नाम से दबाव बनाना,
- और अपने हितों के लिए नेताओं के चरण चुम्बन करना।
कानपुर के स्वरूपनगर क्षेत्र में हाल ही में एक संगठन के ‘प्रदेश अध्यक्ष’ की वीडियो वायरल हुई, जिसमें वे एक पार्षद से ठेके को लेकर ‘पत्रकारों की यूनियन’ के नाम पर सौदेबाजी कर रहे थे।
गोरखपुर में एक तथाकथित संगठन द्वारा पत्रकारिता में नवागंतुक युवाओं को 5,000 रुपये में “पत्रकार परिचय पत्र”, गाड़ी पर “प्रेस” का स्टीकर और संगठन की नेमप्लेट बेची जा रही है।
प्रशासन की चुप्पी: मौन सहमति या उदासीनता?
यह सवाल बार-बार उठता है कि जब ऐसे संगठनों की गतिविधियाँ न केवल पत्रकारिता की गरिमा को धूमिल कर रही हैं, बल्कि शासन-प्रशासन को भी भ्रमित कर रही हैं, तो फिर इन पर कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं होती?
उत्तर है — कानून की कमी और राजनीतिक संरक्षण।
भारत में अभी तक कोई ऐसा स्पष्ट, शक्तिशाली केंद्रीय कानून नहीं है जो यह तय करे कि एक पत्रकार संगठन की वैधता क्या होनी चाहिए, उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही क्या हो।
सरकार को चाहिए कि—
1. पत्रकार संगठनों के पंजीकरण के मानक तय करे,
2. पदाधिकारियों के लिए न्यूनतम शैक्षिक/पत्रकारीय अनुभव अनिवार्य करे,
3. और पत्रकार संगठन की वित्तीय और गतिविधिगत रिपोर्टिंग सार्वजनिक करने का निर्देश दे।
संगठनों का असली दायित्व क्या?
सच तो यह है कि एक सही पत्रकार संगठन वह है जो —
- पत्रकारों पर हमले के खिलाफ आवाज़ उठाए,
- उनके प्रशिक्षण और सशक्तिकरण की योजना चलाए,
- और निष्पक्ष पत्रकारिता के मानकों को मजबूत करे।
लेकिन अफसोस, आज अधिकांश संगठन इस राह पर नहीं, बल्कि सत्तामुखी चाटुकारिता की राह पर हैं।
पत्रकारों की चुप्पी ही सबसे बड़ा संकट
आज सबसे बड़ा संकट यह है कि जो ईमानदार पत्रकार हैं, वे इन संगठनों के ‘शोर’ के बीच खामोश और अलग-थलग पड़ गए हैं। न वे संगठनों का हिस्सा बनते हैं, न इन पर सवाल उठाते हैं। यह चुप्पी ही इन फर्जी संगठनों की सबसे बड़ी ताक़त बन गई है।
अगर पत्रकार स्वयं नहीं जागे, तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर उठे सवालों का कोई जवाब न सत्ता दे पाएगी, न समाज।
अब समय आ गया है कि पत्रकार समाज अपने भीतर छुपे व्यवसायिक गिद्धों को पहचानकर उनका सार्वजनिक बहिष्कार करे।
और सरकार, प्रेस परिषद और सूचना निदेशालय को यह गंभीरता से सोचना होगा-
“क्या प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता की छूट दी जा सकती है?”
यदि नहीं, तो प्रेस की मर्यादा और पत्रकार की गरिमा बचाने के लिए ठोस नियम और कार्रवाई की पहल अब अनिवार्य हो गई है।
🖋️ — एक जागरूक पत्रकार की कलम से
(यह संपादकीय स्वतंत्र विचार पर आधारित है और किसी विशेष व्यक्ति या संस्था को लक्षित करने का उद्देश्य नहीं रखता, बल्कि एक व्यापक पत्रकारिता संकट की ओर ध्यान आकृष्ट करता है।)
बहुत बढ़िया अनूप जी
अनूप जी, बहुत ही अच्छा लेख लिखा है। संगठन तो क्या, गली गली में पत्रकारों की बाढ़ आ गई है। जो लोग पत्रकारिता का क ख ग नहीं जानता पत्रकार बन बैठा है और पत्रकारिता से जुड़े लोगों की साख को धक्का पहुंचा रहे हैं। एक अछूते मुद्दे को उठाने के लिए धन्यवाद।