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10 March 2025 5:01 pm

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महिला समृद्धि योजना: वादा, हकीकत और राजनीतिक छलावा

62 पाठकों ने अब तक पढा

 अनिल अनूप

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8मार्च) पर दिल्ली कैबिनेट ने ‘महिला समृद्धि योजना’ को मंजूरी दी, जिसके तहत गरीबी रेखा के नीचे (BPL) जीवनयापन करने वाली महिलाओं को 2500 रुपये प्रति माह दिए जाएंगे। यह कदम निश्चित रूप से महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की तरह दिखता है, लेकिन जब इसे गहराई से परखा जाता है, तो इसकी वास्तविकता कई सवाल खड़े करती है। क्या यह योजना सच में महिलाओं को समृद्ध बनाएगी, या फिर यह सिर्फ एक चुनावी वादा था, जिसे अब तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है?

वादों और हकीकत के बीच का अंतर

दिल्ली में कुल 72 लाख महिलाएं हैं, जिनमें से लगभग 45% ने भाजपा को वोट दिया था। चुनावी प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सभी महिलाओं’ को 2500 रुपये प्रति माह देने का वादा किया था। लेकिन अब इस योजना के तहत सिर्फ 17 लाख महिलाओं को शामिल किया गया है।

सवाल यह है कि क्या सरकार ने पहले से ही यह तय कर रखा था कि केवल बीपीएल महिलाओं को ही लाभ मिलेगा, या फिर यह बदलाव किसी राजनीतिक दबाव या वित्तीय सीमाओं की वजह से किया गया? यदि यह पहले से तय था, तो चुनाव प्रचार के दौरान इसकी स्पष्ट घोषणा क्यों नहीं की गई?

योजना पर उठते सवाल

इस योजना के लिए 5100 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है, लेकिन पात्रता के मानदंड और शर्तें अभी भी स्पष्ट नहीं की गई हैं। मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की अध्यक्षता में एक मंत्री समूह बनाया गया है, लेकिन इसकी रिपोर्ट कब आएगी और महिलाओं को यह पैसा कब मिलेगा, यह अनिश्चित बना हुआ है।

यह स्पष्ट है कि यह योजना जल्दबाजी में घोषित की गई थी, बिना ठोस योजना और क्रियान्वयन की रणनीति के। यह किसी भी नीति-निर्माण की आदर्श प्रक्रिया नहीं है और इससे सरकार की नीयत पर सवाल उठते हैं।

आप’ का हमला: चुनावी जुमला या हकीकत?

आम आदमी पार्टी (AAP) ने इस योजना को भाजपा का “चुनावी छलावा” करार दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी का दावा है कि अगर ‘आप’ सरकार होती, तो 38 लाख महिलाओं को लाभ मिलता, जबकि भाजपा ने यह संख्या 17 लाख तक सीमित कर दी।

‘आप’ अब यह सवाल उठा रही है कि “2500 रुपये कब मिलेंगे?” और भाजपा के चुनावी वादे को “जुमला” बता रही है। हालांकि, ‘आप’ खुद दिल्ली में कई मुफ्त योजनाएं चला रही है, जिससे यह बहस और भी जटिल हो जाती है।

मुफ्त की रेवड़ी’ बनाम ‘वैकल्पिक आर्थिक मॉडल’

भाजपा ने अब ‘मुफ्त की रेवड़ी’ संस्कृति से बचने के लिए एक ‘वैकल्पिक मॉडल’ पर चर्चा शुरू कर दी है। इस विचार की नींव दिल्ली चुनाव की रणनीति बनाते समय रखी गई थी, लेकिन तब भाजपा ने भी चुनावी मजबूरियों के कारण मुफ्त योजनाओं की घोषणा कर दी थी।

अब पार्टी 2026 में असम चुनाव से शुरू होकर मुफ्त योजनाओं की जगह आर्थिक और व्यावसायिक मदद का नया मॉडल पेश करने की योजना बना रही है। इसके तहत:

1. छोटे दुकानदारों, रेस्तरां मालिकों, निम्न आय वर्ग के परिवारों, पिछड़े वर्गों और जरूरतमंद लोगों को सरकार सालाना एकमुश्त राशि देगी।

2. इस राशि को बैंकों के माध्यम से दोगुना किया जाएगा, ताकि लोग आत्मनिर्भर बन सकें।

यह विचार न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक है, बल्कि लोगों को मुफ्त की आदत से दूर कर उन्हें खुद से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकता है।

राज्यों की आर्थिक स्थिति और ‘रेवड़ी राजनीति’

देश के प्रमुख 7 राज्यों (मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात) में 8.1 करोड़ महिलाओं को करीब 1.24 लाख करोड़ रुपये की राशि वितरित की जा रही है, जो इन राज्यों के कुल बजट का 12% हिस्सा है।

राज्यों पर पहले ही 2.5 लाख करोड़ से 9 लाख करोड़ रुपये तक का कर्ज चढ़ चुका है। ऐसे में यह बहस जरूरी हो जाती है कि क्या देश की आर्थिक स्थिति इस ‘मुफ्तखोरी’ की राजनीति को लंबे समय तक झेल सकती है?

भाजपा का नया मॉडल इस समस्या को हल करने की कोशिश करता है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह वैकल्पिक व्यवस्था उतनी ही लोकप्रिय होगी जितनी मुफ्त योजनाएं?

क्या मुफ्त योजनाओं का कोई समाधान है?

महिला समृद्धि योजना’ की घोषणा ने यह साफ कर दिया है कि राजनीतिक दल चुनावी फायदे के लिए बड़े-बड़े वादे कर देते हैं, लेकिन जब उन्हें लागू करने की बारी आती है, तो हकीकत कुछ और ही होती है।

भाजपा अब ‘मुफ्त की रेवड़ी’ संस्कृति से हटकर एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल पर विचार कर रही है, लेकिन क्या यह मॉडल जनता को लुभा पाएगा? यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह नया मॉडल मुफ्त योजनाओं की जगह ले पाएगा, या फिर राजनीतिक दलों को अंततः मुफ्त योजनाओं की ओर ही लौटना पड़ेगा।

आखिरकार, क्या राजनीति में ‘लोकलुभावनवाद’ का कोई स्थायी समाधान संभव है? या फिर यह सिर्फ सत्ता पाने का एक जरिया बना रहेगा? यह सवाल न केवल सरकारों, बल्कि जनता के सोचने के लिए भी है।

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