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संपादकीय

भारत की महान नारी विभूतियाँ: अदम्य साहस, भक्ति और नेतृत्व की प्रतीक

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अनिल अनूप

भारत का इतिहास जहाँ एक ओर आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में महान पुरुषों की उपलब्धियों से समृद्ध है, वहीं यह ऐसी वीर और विदुषी नारियों से भी गौरवान्वित है, जिन्होंने अपने कृतित्व से इतिहास के पृष्ठों पर अमिट हस्ताक्षर किए हैं। इन विभूतियों का योगदान आज भी समाज के लिए प्रेरणा स्रोत बना हुआ है। उनके प्रति सम्मान और आदर का भाव करोड़ों भारतीयों के मन में सदैव बना रहता है।

मीराबाई: भक्ति और प्रेम की प्रतीक

1498 में जन्मी मीराबाई भारतीय भक्ति आंदोलन की अद्वितीय विभूति थीं। उन्होंने प्रेम और भक्ति को एक नई परिभाषा दी। जिस प्रकार गौतम बुद्ध और महावीर ने ध्यान और मौन के माध्यम से परम तत्व को जाना, और कबीर ने अपने भजनों में ईश्वर को आत्मसात किया, उसी प्रकार मीरा ने संपूर्ण समर्पण और प्रेम से अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त किया।

मीरा का भक्ति मार्ग बचपन से ही प्रारंभ हुआ। कथा के अनुसार, जब वे चार-पाँच वर्ष की थीं, तब एक साधु के पास श्रीकृष्ण की मूर्ति देखकर वे इतनी भाव-विभोर हो गईं कि उनके जीवन का उद्देश्य ही कृष्ण की आराधना बन गया। यही विरह और भक्ति उनकी पहचान बन गई, जो जीवनपर्यंत बनी रही।

मीरा ने लगभग 100 भजनों की रचना की, जिनमें कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति झलकती है। जिस युग में महिलाओं पर सामाजिक बंधन कठोर थे, उस समय मीरा ने अपनी भक्ति की राह में हर बंधन को तोड़ दिया। उनकी भक्ति में इतनी शक्ति थी कि महात्मा गांधी भी उनके भजनों से प्रभावित हुए। 2 अक्टूबर 1947 को अपने अंतिम जन्मदिन पर गांधीजी ने एम. एस. सुब्बालक्ष्मी से मीरा के भजन गाने का आग्रह किया था।

मीरा का अंत भी उनकी भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है। जब मेवाड़ के राजा उदयसिंह उन्हें वापस लाने के लिए द्वारका पहुंचे, तब मीरा मंदिर में श्रीकृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गईं। यह भक्ति की चरम अवस्था थी, जहाँ भक्त और भगवान एकाकार हो जाते हैं।

एनी बेसेंट: भारतीय संस्कृति की संरक्षिका

1847 में जन्मी एनी बेसेंट भारतीय राष्ट्रीयता और थियोसोफिकल सोसायटी के विकास में अपनी अद्भुत भूमिका के लिए जानी जाती हैं। वे भारत की प्राचीन सनातन परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों से इतनी प्रभावित थीं कि उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि के समान माना।

16 नवंबर 1893 को जब वे भारत आईं, तब उन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर लिया। उन्होंने पारंपरिक भारतीय परिधान अपनाए और भारतीय खान-पान को स्वीकार किया। वे भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा पर निकलीं और अमरनाथ तक पैदल गईं। बनारस में रहते हुए उन्होंने सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जो आगे चलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का आधार बना।

उन्होंने न केवल भारतीय ग्रंथों का अध्ययन किया बल्कि गीता का अनुवाद, रामायण और महाभारत की संक्षिप्त कथाएँ भी लिखीं। उनके ओजस्वी भाषणों ने भारतीयों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भावना को जाग्रत किया। अंग्रेज लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने उनकी वाकपटुता की प्रशंसा करते हुए कहा था कि पूरे इंग्लैंड में उनके समान प्रभावशाली वक्ता कोई नहीं था।

भारत के प्रति उनके समर्पण को महात्मा गांधी ने भी सराहा। उन्होंने कहा था, “जब तक भारत जीवित रहेगा, तब तक एनी बेसेंट की सेवाएँ भी जीवित रहेंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई: पराक्रम और देशभक्ति की प्रतिमूर्ति

19 नवंबर 1835 को काशी में जन्मी रानी लक्ष्मीबाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर नायिका थीं। उनकी वीरता, साहस और बलिदान की कहानियाँ भारत के हर नागरिक को प्रेरित करती हैं।

एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्मी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ। विवाह के कुछ ही वर्षों बाद, 19 वर्ष की आयु में वे विधवा हो गईं। उनके पति की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने झाँसी पर कब्जा करने की कोशिश की, लेकिन लक्ष्मीबाई ने संकल्प लिया कि वे जीते-जी अपनी झाँसी को अंग्रेजों के हाथों में नहीं जाने देंगी।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपने रणकौशल से अंग्रेजों को चुनौती दी। पुरुष वेश में घुड़सवारी करते हुए, सिर पर लोहे का कूला पहनकर, दोनों बगल में तलवारें और पिस्तौल लटकाए वे रणभूमि में उतरती थीं। उनका पराक्रम देखकर अंग्रेज भी चकित रह गए।

17 जून 1858 को वे ग्वालियर में वीरगति को प्राप्त हुईं। उनके बलिदान को कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अमर कर दिया—

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।

कश्मीर की योद्धा महारानी दीद्दा

कश्मीर की रानी दीद्दा, जिन्हें “क्वीन वॉरियर” कहा जाता है, अपने चातुर्य, नेतृत्व और पराक्रम के लिए जानी जाती हैं। 925 ई. में जन्मी दीद्दा बचपन से ही पोलियो से ग्रस्त थीं, लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता और नेतृत्व क्षमता अद्भुत थी।

राजा क्षेमगुप्त से विवाह के बाद उन्होंने शासन कार्यों में रुचि लेनी शुरू की। 950 ई. में उनके पति की मृत्यु के बाद, उन्होंने महल के षड्यंत्रों को विफल कर स्वयं शासन सँभाला। उन्होंने कश्मीर के साम्राज्य का विस्तार किया और प्रजा के कल्याण हेतु अनेक कार्य किए।

सबसे बड़ी चुनौती तब आई जब महमूद गजनी ने कश्मीर पर आक्रमण किया। लेकिन दीद्दा ने अपनी रणनीति और सैन्य शक्ति से उसे दो बार पराजित किया। कश्मीर के इतिहास में उनकी वीरता की गाथाएँ आज भी सुनाई जाती हैं।

नारी शक्ति की अमर गाथा

भारत की ये वीरांगनाएँ केवल इतिहास का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये हमारे समाज की प्रेरणास्रोत हैं। जहाँ मीरा ने भक्ति की राह दिखाई, वहीं एनी बेसेंट ने भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने का कार्य किया। रानी लक्ष्मीबाई और दीद्दा ने युद्धभूमि में पराक्रम दिखाया और अपने राज्यों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

इन विभूतियों का जीवन हमें सिखाता है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, साहस, निष्ठा और संकल्प से सब कुछ संभव है। भारतीय नारी शक्ति का यह स्वर्णिम इतिहास हमें प्रेरित करता है कि हम भी अपने जीवन में साहस, समर्पण और सत्य के मार्ग पर चलें।

“नारी शक्ति अनंत है, और उसका तेज सदैव प्रकाशमान रहेगा।”

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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