अनिल अनूप
हिंदी पत्रकारिता कभी जनसंघर्षों की आवाज रही है, स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका ऐतिहासिक रही। परंतु आज का परिदृश्य कहीं अधिक चिंताजनक है। जहां पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, वहीं हिंदी पत्रकारिता की साख पर लगातार प्रश्नचिह्न लगते जा रहे हैं। TRP की दौड़, कॉरपोरेट नियंत्रण, राजनीतिक झुकाव, और सोशल मीडिया के दबाव ने इसे एक मिशन से व्यवसाय में तब्दील कर दिया है।
गिरती साख: एक आंकड़ों की पड़ताल
Reuters Institute Digital News Report 2024 के अनुसार, भारत में मीडिया ट्रस्ट 36% पर आ चुका है — जो कि 2019 में 43% था। हिंदी समाचार माध्यमों में यह ट्रस्ट इंडेक्स और भी कम है।
Lokniti-CSDS के 2023 के एक सर्वे के मुताबिक, 62% दर्शकों को लगता है कि हिंदी चैनल किसी एक राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा देते हैं।
AltNews और BOOM जैसी फैक्ट-चेकिंग एजेंसियों की रिपोर्ट बताती है कि वायरल होने वाली 70% फेक न्यूज हिंदी भाषा में होती है, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा मुख्यधारा के चैनलों द्वारा भी बिना पुष्टि के चलाया गया।
कारपोरेट और राजनीतिक दबाव
हिंदी मीडिया हाउस अब स्वतंत्र नहीं रह गए हैं। बड़े कॉरपोरेट घरानों ने कई हिंदी अखबारों और चैनलों को अधिग्रहित कर लिया है, जिनके अपने व्यावसायिक और राजनीतिक हित हैं। इससे पत्रकारिता की निष्पक्षता प्रभावित होती है।
‘ब्रेकिंग न्यूज’ की बीमारी
सूचना की स्पर्धा में हिंदी पत्रकारिता की भाषा और तथ्य दोनों प्रभावित हुए हैं। खबर की गहराई, संदर्भ और सत्यापन को नजरंदाज कर सिर्फ सबसे पहले खबर देने की होड़ ने साख गिराई है।
सोशल मीडिया का प्रभाव और ‘व्हाट्सएप यूनिवर्स’
सोशल मीडिया ने हिंदी पत्रकारिता को सूचनाओं के सतही स्तर पर ला दिया है। कई बार बिना पुष्टि के ही व्हाट्सएप यूनिवर्स से खबरें चैनलों पर चल जाती हैं। इससे पत्रकारिता का भरोसा टूटता है।
पेड न्यूज और विज्ञापन आधारित रिपोर्टिंग
2019 लोकसभा चुनाव के दौरान प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि हिंदी अखबारों ने पेड न्यूज को बढ़ावा दिया। विज्ञापनदाता की प्राथमिकता अब खबर से ऊपर हो गई है।
स्थानीय पत्रकारिता का क्षरण
ग्रामीण व कस्बाई इलाकों की पत्रकारिता, जो कभी हिंदी मीडिया की ताकत थी, अब संसाधनों के अभाव और राजनीतिक-सामाजिक दबाव में खत्म होती जा रही है। इससे ‘जन की बात’ गायब होती जा रही है।
परिणाम: एक गंभीर संकट
जनता का अविश्वास: लोग अब पत्रकारिता को संदेह की निगाह से देखते हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
युवाओं का मोहभंग: पत्रकारिता को करियर मानने वाले युवा अब इसे ‘कंप्रोमाइज्ड प्रोफेशन’ मानते हैं, जिससे योग्य प्रतिभाएं इससे दूर जा रही हैं।
विचारों का ध्रुवीकरण: जब पत्रकारिता किसी विचारधारा या सत्ता की भाषा बोलने लगे, तो समाज में ध्रुवीकरण और कट्टरता बढ़ती है।
फेक न्यूज का बोलबाला: साख गिरने के बाद, लोग वैकल्पिक स्रोतों की तरफ जाते हैं, जिससे गलत जानकारी और अफवाहें फैलती हैं।
उदाहरण: जिनसे स्पष्ट होता है साख का क्षरण
सुशांत सिंह राजपूत केस में कई हिंदी चैनलों ने न्यायिक प्रक्रिया से पहले ही ‘मीडिया ट्रायल’ कर दिया था, जिससे बाद में उन्हें अदालत की फटकार भी मिली।
कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा को कई हिंदी चैनलों ने या तो अनदेखा किया या एक खास राजनीतिक एंगल से दिखाया।
मणिपुर और कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर हिंदी चैनलों की रिपोर्टिंग अक्सर एकतरफा रही है, जिससे उनके उद्देश्य पर सवाल खड़े होते हैं।
समाधान की संभावनाएं
स्वतंत्र संपादकीय बोर्ड
हर मीडिया संस्थान में एक स्वतंत्र संपादकीय बोर्ड होना चाहिए जो खबरों के चयन और प्रस्तुति में हस्तक्षेप से मुक्त हो।
फैक्ट-चेकिंग की अनिवार्यता
हिंदी पत्रकारिता में फैक्ट-चेकिंग यूनिट का गठन अनिवार्य होना चाहिए। इससे झूठी खबरों पर लगाम लगेगी।
प्रेस काउंसिल और ट्राई को सशक्त बनाना
नियामक संस्थाएं सिर्फ सलाह देने वाली न रहें, बल्कि दंडात्मक अधिकार भी उन्हें दिए जाएं।
नागरिक पत्रकारिता को बढ़ावा देना
ब्लॉग, यूट्यूब, और स्वतंत्र हिंदी पोर्टल्स को सहयोग देकर ‘ऑल्टर्नेटिव जर्नलिज्म’ को बढ़ावा देना जरूरी है।
पत्रकारों की सुरक्षा और प्रशिक्षण
स्थानीय पत्रकारों को संसाधन, सुरक्षा और ईमानदार ट्रेनिंग दी जाए ताकि वे बिना डर के निष्पक्ष पत्रकारिता कर सकें।
हिंदी पत्रकारिता का संकट सिर्फ एक पेशे का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का संकट है। साख गिरना मात्र छवि की समस्या नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतावनी है जो बताती है कि यदि हमने पत्रकारिता को पुनः मिशन नहीं बनाया, तो लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भी डगमगा सकते हैं।
पर आशा की किरण अब भी है — स्वतंत्र पोर्टल्स, ईमानदार पत्रकार, और नागरिकों की मीडिया साक्षरता यदि बढ़े, तो हिंदी पत्रकारिता एक बार फिर विश्वास की भाषा बन सकती है।