– अनिल अनूप
22 अक्टूबर 1758 का दिन भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक अत्यंत पीड़ादायक और निर्णायक मोड़ लेकर आया। दोपहर 2 बजे, जब सूर्य आकाश में तप रहा था, पंजाब की पवित्र भूमि पर एक औरषण आंधी चल रही थी। अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर, जिसे हरमंदिर साहिब भी कहा जाता है, उस दिन अपवित्रता, अपमान और अत्याचार का साक्षी बना। अफगान शासक और पठान सेनानायक जहान खान और उनके सहयोगियों ने उस पवित्र स्थल को नष्ट करने का दुस्साहस किया। मिट्टी से भर दिया गया पवित्र सरोवर, स्वर्ण कलशों को उतारकर छीन लिया गया, और गुरबाणी की गूंज को तोपों की गड़गड़ाहट से दबाने की कोशिश हुई।
क्यों निशाना बना हरमंदिर साहिब?
18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध भारत के लिए अशांति, विदेशी आक्रमणों और सत्ता के अस्थायी केंद्रों का युग था। अहमद शाह अब्दाली के बार-बार किए गए हमलों ने पंजाब को खंड-खंड कर दिया था। उस समय पठानों और अफगानों की नजर अमृतसर पर थी, न केवल उसकी धार्मिक महत्ता के कारण, बल्कि वहां जमा संपत्ति और लोगों के मनोबल को तोड़ने के उद्देश्य से भी।
हरमंदिर साहिब उस समय सिख शक्ति और एकता का प्रतीक बन चुका था। वहां जमा होता “संगत का चढ़ावा”, स्वर्ण मंडप और पवित्र सरोवर — यह सब एक ललचाई हुई सत्ता के लिए ‘निशाना’ था। अफगानों के लिए यह केवल एक सैन्य या राजनीतिक आक्रमण नहीं था; यह एक धार्मिक और सांस्कृतिक नरसंहार की शुरुआत थी।
22 अक्टूबर 1758 की दोपहर: जब अमृतसर रोया
दोपहर 2 बजे, अफगानी सेनाएं हरमंदिर साहिब के परिसर में घुस आईं। गुरुद्वारे की दीवारों पर तोपें दागी गईं। मंदिर के स्वर्ण कलशों को तोड़ा गया, जिनमें कुछ को पिघलाकर अपने साथ ले जाया गया। सरोवर — जो पवित्र जल से भरा रहता था — उसमें मिट्टी डलवाई गई, जानबूझकर, ताकि वह ‘बेअदब’ और ‘नष्ट’ हो जाए।
गुरुग्रंथ साहिब की बीड़ें फाड़ी गईं। कई ग्रंथियों को मारा गया। बच्चों और महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। यह धार्मिक असहिष्णुता और सांस्कृतिक बर्बरता का चरम रूप था।
लेकिन क्या सिख मिट गए? — नहीं!
इतिहास गवाह है कि जब अत्याचार चरम पर पहुंचता है, तब प्रतिकार भी जन्म लेता है। हरमंदिर साहिब की इस त्रासदी के बाद, पंजाब के गांव-गांव में लोहा खौलने लगा। निहंग और अकालियों ने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, गुरुओं की विरासत को नष्ट नहीं होने देंगे।
इसी समय, कई हिंदू राजाओं, जमींदारों और साधारण नागरिकों ने सिखों को सहायता पहुंचाई। देसी हिंदू राजाओं ने न केवल आर्थिक सहायता दी, बल्कि अपने किलों और इलाकों में सिख शरणार्थियों को स्थान दिया। गुरुद्वारे की पुनर्निर्माण प्रक्रिया में कई गैर-सिख हिंदू कारीगरों और स्वेच्छा से दान देने वालों ने भी योगदान दिया।
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पुनर्निर्माण: जब मिट्टी से फिर सोना निकला
1758 की उस अंधेरी दोपहर के बाद, कुछ वर्षों में ही सिखों ने दुबारा हरमंदिर साहिब को संवारना शुरू कर दिया। जब 1764 में बाबा दीप सिंह शहीद हुए, तब भी उनका सिर कटने के बाद भी तलवार चलाता रहा — यह महज किंवदंती नहीं, सिख जज्बे की प्रतीक कथा है।
1770 के दशक तक सिख मिसलों ने मिलकर अमृतसर को फिर जीवंत किया। महाराजा रणजीत सिंह ने 1830 में स्वर्ण मंदिर की बाहरी दीवारों को असली सोने से मढ़वाया। वह क्षण भारत की आत्मा के पुनरुत्थान का प्रतीक बन गया।
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धर्मों के बीच नहीं, अत्याचार के खिलाफ एकता
यह घटना केवल एक धार्मिक स्थल पर हमला नहीं था। यह एक संप्रदाय की पहचान, उसकी आत्मा, और उसकी आत्मनिर्भरता पर सीधा आघात था। परंतु यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि भारतवर्ष की आत्मा किसी एक धर्म से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना से बनी है।
जब पठान हमलावर हरमंदिर साहिब को नष्ट कर रहे थे, तब कई हिंदू वीरों ने अपने सिख भाइयों के साथ मिलकर संघर्ष किया। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब हिन्दू-सिख एकता ने इस देश को खंडित होने से बचाया।
सिख धर्म और हिंदू धर्म में कोई दीवार नहीं रही — बल्कि दोनों ने मिलकर अत्याचारों के खिलाफ एक साझा दीवार बनाई।
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इतिहास को दोहराया नहीं जाना चाहिए
स्वर्ण मंदिर पर हुए हमले का जिक्र केवल अतीत की पीड़ा नहीं है, यह आज की चेतावनी भी है। जब धर्म के नाम पर सत्ता खेली जाती है, जब धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया जाता है, तब समझना चाहिए कि असली दुश्मन कोई धर्म नहीं, बल्कि वह विचारधारा है जो नफरत और वर्चस्व की उपज है।
आज जब हम साम्प्रदायिक तनावों, राजनीतिक ध्रुवीकरण और धार्मिक असहिष्णुता के युग में खड़े हैं, तो 1758 की वह घटना हमें याद दिलाती है कि धार्मिक एकता ही इस देश की ताकत है।
मिट्टी डालने से धर्म नहीं मिटते
हरमंदिर साहिब को मिट्टी से भरने वालों को लगा कि वह सिख धर्म को भी दफना देंगे। पर वे इतिहास की सबसे बड़ी भूल कर बैठे। धर्म और आत्मबल को मिट्टी से नहीं, बल्कि आत्मीयता, तपस्या और न्याय से संभाला और संजोया जाता है।
आज भी जब हम स्वर्ण मंदिर की छवि देखते हैं, तो उसमें केवल स्थापत्य सौंदर्य नहीं, बल्कि एक जीवंत संघर्ष, पीड़ा और पुनर्जन्म की कहानी नजर आती है।
और यह याद रखना जरूरी है — धर्म तब तक जीवित रहता है, जब तक उसमें अपने से पहले दूसरों के लिए खड़े होने का साहस बचा हो।