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28 December 2024 2:36 pm

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हिंदी पत्रकारिता दिवस ; प्रोडक्शन और टीआरपी के मकड़जाल में फंसी आज की पत्रकारिता 

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आत्माराम त्रिपाठी

‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो।’

ये शेर अकबर इलाहाबादी ने तब लिखा था जब अंग्रेजी हकूमत में क्रूरता अपने चरम पर थी अकबर इलाहाबादी ने अख़बार को उस वक्त एक बड़ी ताकत के रूप में देखा था।ठीक वैसे ही जैसे नेपोलियन ने कहा था कि चार विरोधी अखबारों की मारक क्षमता के आगे हज़ारो बंदूकों की ताकत बेकार है।

भारत के लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की ताकत और महत्ता का आज दिन है। 30 मई को हर साल हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है ,आज ही के दिन हिंदी भाषा में पहला समाचार पत्र “उदन्त मार्तण्ड” का प्रकाशन हुआ था।

पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने 30 मई, 1826 को इसे कलकत्ता से एक साप्ताहिक समाचार पत्र के तौर पर शुरू किया था। इसके प्रकाशक और संपादक वो खुद थे, हालांकि पैसों की तंगी की वजह से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन 4 दिसम्बर 1826 को बंद कर दिया गया था लेकिन उदन्त मार्तण्ड’ से शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का ये सफर आज बरकरार है।

आज के दौर में पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। व्यापक होने के साथ साथ पत्रकारिता आज बदलने भी लगी है। अंग्रेजी सरकार से लोहा लेने वाली पत्रकारिता आजकल लुप्त होती जा रही है। वैसे तो पत्रकारिता हमेशा से ही जन-जन तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद एवं मनोरंजनात्मक संदेश पहुंचाने का माध्यम रही है। 

अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि समाचार पत्र और वेब पोर्टल  उस उत्तर पुस्तिका के समान है, जिसके लाखों परीक्षक एवं अनगिनत समीक्षक होते हैं। अन्य माध्यमों के भी परीक्षक एवं समीक्षक उनके लक्षित जनसमूह ही होते हैं, जिनमे तथ्यपरकता, यथार्थवादिता, संतुलन एवं वस्तुनिष्ठता इसके आधारभूत तत्व है, लेकिन इनकी कमियां आज पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत बड़ी त्रासदी साबित होने लगी हैं। 

पत्रकार चाहे पत्रकारिता का प्रशिक्षित हो या गैर प्रशिक्षित यह सबको पता है कि पत्रकारिता में तथ्यपरकता होनी चाहिए, लेकिन आजकल तथ्यों को ही तोड़- मरोड़ कर, बढ़ा.चढ़ा कर या घटाकर सनसनी बनाने की प्रवृत्ति पत्रकारिता में बढ़ने लगी है। खबरों में पक्षधरता एवं अंसतुलन भी आजकल देखा जा सकता है। इस प्रकार खबरों में निहित स्वार्थ साफ झलकने लग जाता है। 

आज समाचारों में अपने निजी विचार को शामिल किया जा रहा है। समाचारों का संपादकीयकरण होने लगा है, विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढ़ने लगी है। इससे पत्रकारिता में एक अस्वास्थ्यकर प्रवृत्ति विकसित होने लगी है। समाचार विचारों की जननी होती है इसलिए समाचारों पर आधारित विचार तो स्वागत योग्य हो सकते हैं, लेकिन विचारों पर आधारित समाचार अभिशाप की तरह है।

पत्रकारिता आजादी से पहले एक मिशन हुआ करता था। आजादी के बाद यह एक प्रोडक्शन बन गया, जिससे कमाई के रास्ते तलाशने की कवायद तेज़ी से शुरू हो गयी। भारत मे आपात काल के दौरान जब प्रेस पर सरकार ने सेंसर लगा दिया था, तब पत्रकारिता एक बार फिर भ्रष्टाचार मिटाओ अभियान को लेकर मिशन बन गई थी, लेकिन कई सच्चे  पत्रकार, लेखक, कवि और रचनाकारों ने कलम और कागज के माध्यम से ही गजब की क्रांति लायी, पत्रकारिता के माध्यम से उन्ही सच्चे पत्रकारों ने कई तरह के भ्रष्टाचार उजागर भी किये सत्ता पलट दी कई बार खुद सरकार बैकफुट पर नज़र आई, पत्रकारिता का खौफ जब सताने लगा तभी आपातकाल की स्थिति में मीडिया पर सेंसर लगाया गया। आज भी कई पत्रकार अपने जज्बे के साथ पत्रकारिता दिखाई देते है। कोरोना काल में जब लोग एक दूसरे से मिलने में कतराते थे, कोरोना वायरस का ख़ौफ़ सभी की निगाहों में साफ देखा जा सकता था लेकिन अघोषित कोरोना योद्धा यानी पत्रकार तब भी अपनी ज़िम्मेदारी को निभाते हुए कभी अस्पतालो से, कभी सड़को से, कभी कही से तो कभी कही से सच्चाई सामने लाता ही रहा। कोरोना काल मे ही ना जाने कितने पत्रकारों ने अपनी जान तक गवाई।

कितने ही ऐसे कोरोना संक्रमित पत्रकार भी थे जिनकी कलम नही रुकी।  आइसोलेशन में रहते हुए भी पत्रकारिता की। खैर ये बात तो पत्रकारों के जज्बे की है अगर हम पत्रकारों की आज़ादी मीडिया की आज़ादी की बात करें तो आज इस आजादी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में सोशल मीडिया में तमाम तरह की बातें की जाती है। सरकार प्रेस की आजादी पर पहरा लगाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लगातार हो रही पत्रकारों की हत्या, मीडिया चैनलों के प्रसारण पर लगाई जा रही बंदिशे, शासन प्रशासन के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले पत्रकारो का जीना दूभर करना, उन पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगा देना, ऐसी घटनाओं ने प्रेस की आजादी को संकट के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। एडविन वर्क द्वारा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया। वहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाता है यानी की प्रेस की आजादी मौलिक अधिकार के अंतर्गत आती है लेकिन बावजूद इसके पत्रकारिता का गला घोंटा जाता है, हालांकि इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक समय में मीडिया पर प्रलोभन और धन कमाने की चाहत सर पर सवार है, खबरों व डिबेट्स के नाम पर फेक न्यूज का चलन इस बात को पुख्ता करता है इसीलिए मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब  स्वच्छंदता हरगिज नही है, खबरों के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा की ओर ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। 

आजकल सोशल मीडिया में सक्रिय रहने वाला हर व्यक्ति खुद को पत्रकार समझने लगा है, जिसकी वजह से असली पत्रकारों की छवि पर बुरा असर पड़ने लगा है, साथ ही लोकतंत्र के लिए भी घातक है।आज के समय मे एथिक्स,निष्पक्षता, और वॉच डॉग का महत्व मीडिया पर होने वाले सेमिनार ,मीटिंग्स और इनदिनों वर्चुअल प्रोग्राम में होने वाली चर्चाओं पर ही सिमट गया है जिसमे पत्रकारों की तारीफ,पत्रकारिता के उद्गम पर लंबी चर्चा,कौन सा अखबार पहले छपा कौन सी मैगज़ीन पहली थी बस इन्ही बातों पर सिमट कर रह गया है जो कि इतिहास है और इतिहास बदलता नही है ,ऐसी चर्चाओं से अच्छा होता कि पत्रकारिता दिवस पर पत्रकारिता के आयाम तय होते, एकजुटता पर बात होती, सत्ता की तानाशाही के खिलाफ एकमत होता, जनता के हित मे पत्रकार क्या लिख सकता है? कैसे गरीबो का हक दिलाया जा सकता है इस पर चर्चा होती। आज देश टुकड़ों में बंट रहा है। कलम के सिपाही अपनी लेखनी से बंटते हुए देश को बचा पाएं इस पर चर्चा होती लेकिन हर साल पत्रकारिता दिवस पर सिर्फ सेमिनार ,मीटिंग्स,बैठक इत्यादि ही आयोजित होती है दो चार भाषण देकर चाय पानी पीकर सब निकल जाते है अपने झूठी पत्रकारिता करने।  

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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