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November 2, 2024 9:02 am

सरहद के उस पार आज भी भारतीय सामानों की डिमांड ; दिल्ली का चूरन, झुमके, चुनरियां, आम पापड़, नमकीन और लोधी गार्डन की हवा

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उरुज जाफ़री

साल 2013 में मैंने अपने पति को दिल्ली से लाई जाने वाली चीज़ों की एक लंबी सूची बनाकर दी थी और अपनी दोस्त राफ़िया ख़ानम को भी व्हाट्सऐप से भेजा था.

इनमें दिल्ली का चूरन, झुमके, चुनरियां, आम पापड़, नमकीन, केले के चिप्स, कुछ साड़ियां, दिल्ली हाट के लकड़ी के बने बच्चों के लिए खिलौने, लखनऊ की कढ़ाई वाली कुर्तियां आदि शामिल थीं.

बस चलता तो लोधी गार्डन की हवा, क़ुतुब मीनार की रौनक़ और निज़ामउद्दीन औलिया की कव्वालियां भी मंगवा लेती.

अपने दोस्तों के लिए उनकी पसंद के लॉन और लिनन के सलवार सूट भी भेजे थे, वो हमारे सलवार – सूट के दीवाने हैं और हम उनकी साड़ी और चूड़ियों के.

ऐसी लिस्टों का सिलसिला आज का नहीं बल्कि बरसों का है.

हम जब भी मां के साथ ट्रेन या जहाज़ से भारत जाते थे तो एक अटैची सिर्फ़ तोहफ़ों से भरना शुरू हो जाती थी.

मेरे बचपन में यानी 80 के दशक में भारत में इंपोर्टेड चीज़ों का इतना रिवाज़ ना था.

अम्मी सभी महिलाओं के लिए स्विस मिस की लिपस्टिक नंबर 69 ज़रूर ले जाती थीं, क्योंकि हमारी सभी महिला रिश्तेदार अम्मी के होठों पर सजे इस शेड की दीवानी थीं.

गर्मियों में हल्की लॉन के सूट भी भारत में काफ़ी पसंद किए जाते हैं और हैंडबैग भी.

कराची का विशेष दानेदार गहरे ब्राउन रंग का कराची हलवा या हब्शी हलवा भी फ़रमाइश पर ज़रूर पैक किया जाता.

चावला रेस्टोरेंट के छोले भटूरे और अग्रवाल के पनीर अपनी जगह लेकिन हमारी पेशावरी चिकन या मटन कढ़ी का मुक़ाबला आज भी मुमकिन नहीं. इसकी तरकीबों की पर्चियां भी हम फ़रमाइश पर लिख कर दिया करते.

रसना ऑरेंज जूस के पैक भी नहीं भुलाए जा सकते, मेरी टाइटन की कलाई घड़ी की फ़रमाइश आज भी रहती है. ये सब तो दिल और पेट की पूजा के लिए होता था.

ज्ञान को सुकून देने के लिए लिए इलेस्ट्रेटेड वीकली, इंडिया टुडे के ख़ास अंक और बॉलीवुड की चटपटी ख़बरों के लिए स्टारडस्ट, सिने ब्लिज़ और शमा भी ख़रीदी जातीं.

एक ही घर के जब दो हिस्से कर दो तो फ़रमाइशों का पिटारा खुलना तो जायज़ माना जाएगा.

इसी पिटारे में बरेली से पासपोर्ट से ज़्यादा संभाली जाने वाली अम्मी की सांची पान की डलियों को कौन भूल सकता है.

बदायूं के पेड़े, शाह विलायत साहिब के मज़ार की चादर, सधना साहिब की दरगाह के चंद फून, इलाहाबाद के ख़ास काले पंप शो, लखनऊ की कढ़ाई के कुर्ते और चिकन कारी वाले ब्लाउज पीस, कुंदन के ज्वैलरी सेट, लाला काशीनाथ की चांदी का पाजेबें, सभी की लिस्ट तैयार की जाती और इन सबको इन्तिहाई संभाल के पैक कर के लाया जाता.

बात फ़रमाइशों की हो तो गुलाम अली और मेहदी हसन के शायद सभी परस्तार भारत में बसते हों, उनकी गज़लों के कैसेट भी फ़रमाइश पर कराची से पैक किए जाते और भारत में दिए जाते. इसी तरह हम भी हबीब पेंटर जी की कव्वाली के कैसेट साथ लाते.

दिल्ली के ख़ान मार्केट से 2010 में भी हमने म्यूज़िक के कई एलबम्स ख़रीदे थे.

पुरुषों में पाकिस्तान से इंपोर्टेड ड्रेस शर्ट्स भी मक़बूल थीं. नवाब बीड़ी भी एकाध बार दोस्तों ने खत लिख कर मंगवाई थीं.

कहना ना होगा फ़रमाइशी लिस्ट की पैकिंग और उनको कस्टम काउंटर से निकलवाना भी एक कठिन काम होता था. कुछ ना कुछ पाकिस्तानी-हिंदुस्तानी सौगात देकर ही मामला संभाला जाता. यानी कुछ तोहफ़े कस्टम वालों के भी साथ पैक किए जाते.

अब ये नहीं समझ आता कि वो क्या ख़ास मसाले होते हैं तो कबाब मसाले भी उत्तर प्रदेश की बरेली के सैंथल से फ़रमाइश पर साथ लाया जाता और बरसों तक डीप फ्रीज़र में रखकर इस्तेमाल होता.

भारत की यात्रा ऑल इंडिया रेडियो के प्रोग्राम तामील ए इरशाद से कम ना होते. यानी दोनों तरफ़ से की जाने वाली फ़रमाइशों की तामिल करना.

दिलचस्प बात यह भी रही कि कि ना सिर्फ़ ये फरमाइशें हम खुद साथ लाते या बांध कर ले जाते बल्कि अक्सर तो पाकिस्तान आने जाने वाले किसी भी संबंधी को ये पिटारे उठाकर लाने होते थे.

यानी लोग इंतज़ार में रहते कि कब किसी का वीज़ा लगे और हम अपना पार्सल थमा दें. उसमें चिट्ठियां भी होतीं, चूड़ियां भी और चिरौंजी के पैकेट भी.

एक दूसरे को दिए जाने वाले लिए गए फरमाइशी तोहफ़े, जैसे दो टुकड़े हुए मुल्क का तबर्रुक (वह चीज़ से बरकत होने का विश्वास हो) हों या किसी मंदिर का प्रसाद, बस यही हुआ करती थीं, हैं और रहेंगी फ़रमाइशों की फेहरिश्तें और उनमें बसी हमारी खुशबू.

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."