“जम्मू-कश्मीर के जल संकट पर उमर अब्दुल्ला के बयान में क्या है सच्चाई? जानिए क्यों भाजपा विधायकों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस मुद्दे पर समर्थन देना चाहिए।”
केवलकृष्ण पनगगोत्रा
भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में सिंधु जल संधि के तहत पानी के बंटवारे को लेकर समझौता हुआ था। यह संधि भले ही दो देशों के बीच कूटनीतिक रिश्तों का एक संवेदनशील अध्याय रही हो, लेकिन इसका प्रभाव भारत के आंतरिक राज्यों के आपसी जलस्रोत वितरण पर भी देखने को मिला है। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए इस संधि को स्थगित करने का निर्णय लिया है। इसके तहत, पाकिस्तान को मिलने वाले जल का प्रवाह रोकने के लिए 113 किलोमीटर लंबी एक नहर बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया है, जिससे पंजाब, हरियाणा और राजस्थान को जल आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी।
लेकिन सवाल उठता है—क्या जम्मू-कश्मीर की प्यास बुझाए बिना दूसरों को पानी देना उचित है?
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस मुद्दे पर स्पष्ट और ठोस रुख अपनाते हुए 20 जून को जम्मू में मीडिया से बातचीत के दौरान कहा कि—”जब खुद जम्मू को पानी नहीं मिल रहा, तब मैं पंजाब को पानी क्यों दूं?” यह बयान केवल एक राजनीतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि उस जल संकट की गूंज है जिसे कठुआ और सांबा जैसे सीमावर्ती जिले दशकों से झेल रहे हैं।
इतिहास को भूलना अन्याय होगा
यहां यह जान लेना जरूरी है कि उमर अब्दुल्ला का पंजाब के प्रति रोष किसी क्षणिक प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं है। यह एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ा मामला है। 1979 में जम्मू-कश्मीर और पंजाब के बीच हुए जल बंटवारे के समझौते के अनुसार, जम्मू-कश्मीर को शाहपुर कंडी बैराज के माध्यम से 1150 क्यूसेक पानी मिलना तय हुआ था। लेकिन पंजाब सरकार ने इस समझौते का पालन नहीं किया, जिसके चलते कठुआ और सांबा जिलों के हजारों किसानों को पानी से वंचित रहना पड़ा।
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हम यह देखें कि जम्मू-कश्मीर की रावी-तवी सिंचाई परियोजना, जो 1970 के दशक में शुरू की गई थी, आज भी अधूरी है। यह परियोजना दो मुख्य नहरों—रावी नहर और तवी लिफ्ट नहर—पर आधारित है। उद्देश्य स्पष्ट था: कंडी क्षेत्र की कृषि भूमि को जल उपलब्ध कराना। लेकिन पंजाब की ओर से जल वितरण में बाधा और नहरों में पर्याप्त पानी की अनुपलब्धता के चलते यह परियोजना अपना पूरा लाभ देने में असमर्थ रही है।
जमीन पर दिखता है जल संकट
यदि कठुआ और सांबा जिलों की भौगोलिक स्थिति को देखा जाए, तो यह साफ होता है कि यहां के किसान भूमिगत जलस्तर के निरंतर गिराव से त्रस्त हैं। पहले जहां हैंडपंप या बोरवेल मात्र 20-30 फीट पर पानी दे देते थे, अब 100 से 250 फीट खुदाई के बाद भी पानी मुश्किल से मिल पाता है। यह जल संकट न केवल कृषि को प्रभावित कर रहा है, बल्कि यह पूरे क्षेत्र की सामाजिक और आर्थिक स्थिरता पर भी सवाल खड़ा कर रहा है।
क्या केवल पंजाब की जरूरतें मायने रखती हैं?
उमर अब्दुल्ला ने बिल्कुल सही सवाल उठाया है—“क्या पंजाब ने हमें कभी पानी दिया?” सिंधु जल संधि के तहत पंजाब को पहले से ही तीन नदियों का जल मिल रहा है। फिर जम्मू-कश्मीर जैसे पर्वतीय और सीमावर्ती राज्य से अधिशेष पानी छीनकर उसे देना कितना न्यायोचित है? क्या यह सही नहीं होगा कि पहले जम्मू-कश्मीर अपनी जरूरतें पूरी करे, फिर अधिशेष जल का वितरण किया जाए?
राजनीति नहीं, क्षेत्रहित में उठे स्वर
अब सवाल यह उठता है कि क्या जम्मू-कश्मीर के भाजपा विधायक—खासतौर पर हीरानगर और सांबा क्षेत्र के प्रतिनिधि—दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपने क्षेत्र की जनता की आवाज़ बनेंगे? क्या वे उमर अब्दुल्ला के इस तर्कसंगत और न्यायपूर्ण बयान का समर्थन करेंगे?
यहां यह याद रखना जरूरी है कि जल संकट किसी एक पार्टी का मुद्दा नहीं है, यह जनता के जीवन, कृषि, अर्थव्यवस्था और भविष्य से जुड़ा प्रश्न है। भाजपा विधायक यदि अपने क्षेत्र के किसानों और नागरिकों की आवाज़ हैं, तो उन्हें अपने मतदाताओं के हित में इस विषय पर खुलकर बोलना चाहिए।
संविधानिक समझदारी और व्यावहारिक दृष्टिकोण जरूरी है
यह वक्त राजनीतिक रेखाओं को पीछे छोड़, जल-न्याय की दिशा में आगे बढ़ने का है। पानी केवल संसाधन नहीं, अस्तित्व का आधार है। और जब एक राज्य का अस्तित्व ही संकट में हो, तब चुप्पी सबसे बड़ा अपराध बन जाती है। इसलिए, भाजपा विधायकों को न केवल उमर अब्दुल्ला के रुख का समर्थन करना चाहिए, बल्कि केंद्र सरकार से यह मांग भी करनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के जल अधिकारों की अवहेलना न हो।