लखनऊ के चर्चित ट्रिपल मर्डर केस में फरार हुआ गैंगस्टर सोहराब। 20 साल पहले हुई ऐलानिया हत्याओं की कहानी फिर सुर्खियों में। STF और दिल्ली पुलिस तलाश में जुटी।
ठाकुर बख्श सिंह की रिपोर्ट
लखनऊ से फिर उठी डर की धुंध — पुराने ज़ख्म फिर से हरे होने लगे हैं
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में करीब बीस साल पहले जो कुछ हुआ था, उसे न तो पुलिस भूल पाई है, न ही शहर की दीवारों ने उसकी गूंज को थमने दिया। वो कोई मामूली अपराध नहीं था — ये तीन कत्लों का वो तांडव था जो खुलेआम, एलान करके अंजाम दिया गया। और अब, उस कहानी का एक खौफनाक किरदार फिर से आज़ाद घूम रहा है — सोहराब।
धमकी देने वाला फोन, और फिर एक घंटे में तीन कत्ल
इस पूरी कहानी की शुरुआत होती है एक रहस्यमयी कॉल से। कॉल आया लखनऊ के तत्कालीन एसएसपी आशुतोष पांडे को। दूसरी तरफ थी एक ठंडी, बेपरवाह आवाज़।
“अगले एक घंटे में तीन हत्याएं होंगी… अगर बचा सकते हो तो बचा लो।”
पहले तो पुलिस ने इसे एक आम धमकी मान लिया, लेकिन अगले 60 मिनट के भीतर, हुसैनगंज, डालीगंज और मड़ियांव से एक-एक कर तीन मर्डर की खबरें आईं। शहर की रफ्तार थम गई। पुलिस महकमा हिल गया। जनता सिहर गई।
सामने आए तीन नाम — तीन भाई — तीन हत्यारे
जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, एक झकझोर देने वाली सच्चाई सामने आई। पुलिस ने जिन तीन नामों को इस ट्रिपल मर्डर के पीछे पाया, वे थे: सलीम, रुस्तम और सोहराब। ये तीनों सगे भाई थे, और इनका मकसद सिर्फ बदला लेना नहीं था — बल्कि अपराध की दुनिया में अपनी ‘हुकूमत’ दर्ज कराना था।
इनके छोटे भाई शहजादे की हत्या रमजान के दौरान 2004 में कर दी गई थी। और ठीक एक साल बाद — 2005 में — तीन लाशों से बिछा दी गई बदले की बिसात। ये महज हत्याएं नहीं थीं, यह एक क्रूर ‘स्टेटमेंट’ था: हम आए हैं… और अब डर हमारे नाम से होगा।
जेल नहीं, अपराध का नया अड्डा
गिरफ्तारी के बाद ये तीनों लंबे वक्त तक तिहाड़ जैसे हाई-सिक्योरिटी जेलों में बंद रहे, लेकिन उनके इरादे और नेटवर्क पर जेल की दीवारें भी कोई असर नहीं डाल सकीं।
सूत्रों के मुताबिक, जब इन्हें पेशी के लिए लखनऊ लाया जाता, तो चारबाग रेलवे स्टेशन का वेटिंग रूम और कोर्ट परिसर ‘क्राइम हब’ में बदल जाते। वहां इनके गुर्गे बैठते, ड्रग्स, फिरौती, किडनैपिंग और सुपारी किलिंग की रणनीतियाँ तय होतीं।
यहां तक कि सोहराब कोर्ट में बिरयानी खाता और वहीं से मोबाइल फोन के ज़रिए अपना नेटवर्क ऑपरेट करता। जेल प्रशासन की लापरवाही, पुलिस की ढिलाई और कानून की कमजोरियों ने उन्हें हर मोर्चे पर फ्री हैंड दिया।
अब फिर चर्चा में क्यों?
और अब, इतने वर्षों बाद एक बार फिर से वही नाम — सोहराब — हर न्यूज रूम में गूंज रहा है।
सोहराब को हाल ही में तीन दिन की पैरोल मिली थी, जिसमें वह लखनऊ अपनी पत्नी से मिलने आया। लेकिन पैरोल खत्म होने के बाद वो वापस तिहाड़ नहीं लौटा। अब वह फरार है।
दिल्ली पुलिस और यूपी एसटीएफ उसकी तलाश में जुटी है, लेकिन अब तक कोई सुराग नहीं मिला। ये संदेह और गहराता जा रहा है कि शायद वह किसी बड़ी साजिश की तैयारी में है या पहले से ही फरार होने की प्लानिंग कर चुका था।
जुर्म की लंबी फेहरिस्त
सोहराब और उसके भाइयों का नाम लखनऊ से लेकर दिल्ली तक दहशत का प्रतीक बन चुका है। उन्होंने:
- दिल्ली में जूलरी शोरूम में दिनदहाड़े डकैती
- बसपा सरकार में स्वास्थ्य कर्मचारी सैफी की हत्या
- सपा सरकार में भाजपा पार्षद पप्पू पांडे की हत्या
सांसद बर्क के भांजे फैज की हत्या
जैसे संगीन अपराधों को अंजाम दिया था। इनकी एक विशेषता रही — अपराध हमेशा खुल्लम-खुल्ला, चुनौती देते हुए, खौफ के साथ।
सवाल फिर वही — क्या कोई सुरक्षित है?
सोहराब के फरार होने की खबर ने फिर से वो सवाल ज़िंदा कर दिया है जो शायद कभी मरा ही नहीं था:
“अगर तिहाड़ जैसे जेल से ऐसा अपराधी निकल सकता है तो आम नागरिक की सुरक्षा का क्या?”
लखनऊ की सड़कों पर एक बार फिर बेचैनी है। आंखों में डर है। और पुलिस महकमा उस दौर की यादों से जूझ रहा है जो एक फोन कॉल से शुरू होकर तीन लाशों तक पहुंचा था।
लखनऊ के ‘सीरियल किलर ब्रदर्स’ की यह कहानी केवल अपराध की नहीं, बल्कि व्यवस्था की कमज़ोरियों, पुलिस तंत्र की लापरवाहियों, और सिस्टम में छिपी मिलीभगत की भी कहानी है। सोहराब का फिर से गायब हो जाना, उसी पुराने भय को ताजा कर गया है।
अब यह देखने वाली बात होगी कि क्या कानून की मशीनरी इस बार उसे पकड़ पाएगी या फिर यह नाम एक बार फिर से अंधेरे में और डर के साथ रहेगा।