चित्रकूट के विद्यालयों में इंसीनरेटर योजना और सैनिटरी पैड वितरण की हकीकत उजागर—जमीनी स्तर पर योजना निष्क्रिय, छात्राओं को हो रही भारी असुविधा। क्या सिर्फ कागजों में ही जिंदा रहेगी यह योजना?
संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
चित्रकूट। “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे ज़रूर गूंजते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत इन नारों की असलियत खुद बयां कर देती है। परिषदीय विद्यालयों में छात्राओं की मूलभूत ज़रूरतों के प्रति जो लापरवाही सामने आ रही है, वह न केवल चिंता का विषय है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की जर्जर होती संवेदनशीलता की तस्वीर भी है।
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सुविधाएं नहीं, समस्याएं मिल रही हैं
दरअसल, जिले के पठारी क्षेत्रों के विद्यालयों में न तो इंसीनरेटर लगाए गए हैं और न ही सैनिटरी नैपकिन का नियमित वितरण हो रहा है। ऐसे में मासिक धर्म के दौरान छात्राओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दुखद पहलू यह है कि न तो प्रधानाध्यापक इस ओर ध्यान दे रहे हैं, और न ही सहायक अध्यापकों की कोई रुचि दिखाई देती है।
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शर्म और संकोच की बेड़ियां
मिली जानकारी के अनुसार, कई विद्यालयों में प्रधानाध्यापक सैनिटरी पैड अपने कार्यालयों में रख लेते हैं, जिससे छात्राओं को इन्हें मांगने में शर्म महसूस होती है। महिला शिक्षिकाओं की अनुपस्थिति स्थिति को और भी असहज बना देती है। यह न केवल छात्राओं की निजता के साथ समझौता है, बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
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अधिकारी के दावों और ज़मीनी सच्चाई में फर्क
जब इस संबंध में मानिकपुर के खंड शिक्षा अधिकारी मिथिलेश कुमार से पूछा गया तो उन्होंने दावा किया कि सभी विद्यालयों में इंसीनरेटर लगाए गए हैं और सैनिटरी नैपकिन का वितरण भी हो रहा है। उनके अनुसार, जिन विद्यालयों में महिला शिक्षिकाएं नहीं हैं वहां रसोइयों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे छात्राओं को जागरूक करें और उनकी मदद करें।
उन्होंने यह भी बताया कि एक जागरूकता अभियान चलाया गया था, जिसके तहत छात्राओं को इन सुविधाओं के उपयोग के लिए प्रशिक्षित किया गया। उनका कहना था कि यदि किसी विद्यालय में इस योजना में लापरवाही बरती जाती है तो संबंधित प्रधानाध्यापक या शिक्षक के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।
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लेकिन सवाल अब भी कायम हैं…
अधिकारी के दावों और ज़मीनी हकीकत के बीच की खाई को पाटने की आवश्यकता है। यदि सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता, तो विद्यालयों से यह शिकायतें क्यों आतीं? छात्राओं को शर्म और संकोच की स्थिति में क्यों जाना पड़ता? और सबसे अहम बात—क्या ये सुविधाएं हर जरूरतमंद तक वास्तव में पहुंच रही हैं?
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कागज़ों की दुनिया बनाम ज़मीनी सच्चाई
यह कोई नई बात नहीं है कि शिक्षा विभाग की योजनाएं अक्सर कागजों में ही दम तोड़ देती हैं। चाहे वह स्कूलों में शौचालय निर्माण हो, मिड डे मील की गुणवत्ता हो या अब यह इंसीनरेटर योजना—हर बार सवाल एक ही होता है कि योजनाओं का लाभ आखिर जमीनी स्तर तक क्यों नहीं पहुंचता?
अब देखना यह है कि क्या इस बार भी इंसीनरेटर योजना उसी ढर्रे पर चलती रहेगी या फिर शासन-प्रशासन इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए वास्तविक समाधान की दिशा में कदम उठाएगा।
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सुविधाएं सिर्फ योजनाओं में नहीं, हकीकत में चाहिए
अगर हम वाकई में छात्राओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और गरिमा की बात करते हैं, तो हमें महज़ योजनाएं बनाकर पीछे नहीं हटना चाहिए। उन योजनाओं का क्रियान्वयन ही असल परीक्षा है।
छात्राओं की चुप्पी को उनकी स्वीकृति न समझा जाए। यह चुप्पी मजबूरी की है, लाचारी की है, और इससे बाहर निकालने की जिम्मेदारी हमारी है—समाज की, प्रशासन की और शिक्षा विभाग की भी।