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19 January 2025 8:45 am

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बहुपत्नी विवाह, विसंगति को परंपरा का नाम देने वाले समाज के मुंह पर नामुराद दाग़ 

34 पाठकों ने अब तक पढा

शाश्र्वत 

‘मैं हिमाचल के हरिपुरधार में हूं। यहां 80 साल के रामभज सिंह से मेरी मुलाकात होती है। उनकी तीन शादियां हुई हैं। एक पत्नी अब इस दुनिया में नहीं हैं। दो पत्नी उनके साथ ही रहती हैं।

इस उम्र में भी रामभज में ठाकुरों वाली ठसक साफ दिख रही है। स्वेटर की बांह को ऊपर चढ़ाते हुए कहते हैं-

‘मैं 25 साल ग्राम प्रधान था। जब जवान था तो इस पूरे ब्लॉक में रुतबा था। लोग मुझसे डरते थे। किसी भी कर्मचारी की हिम्मत नहीं थी कि मेरे सामने ऊंची आवाज में बात करे।’

रामभज दोनों पत्नियों को मेरी खातिरदारी करने का इशारा करते हैं। इसके बाद कहते हैं- ‘मैं समझ रहा हूं कि आप क्या पूछना चाहते हैं। एक से अधिक शादी कर मैंने कोई गुनाह नहीं किया है। ऐसा ही यहां होता है। यही पहाड़ के इस इलाके की परंपरा है। बुजुर्गों ने कहा तो हमने रख ली दो-तीन पत्नी।’

बहुपत्नी प्रथा हाटी समुदाय के अपर कास्ट में मौजूद है। खुद को राजपूत बताने वाले खस और भट्ट जाति में पुरुष एक से अधिक महिला के साथ रह सकते हैं।

भीम सिंह ने लगभग मेरे कान में आकर कहा, ‘इनकी दो पत्नियां हैं। ये बड़ी वाली की बात कर रहे हैं।”

जीवन में पहली बार पहाड़ देख रही मेरी आंखें और अधिक बड़ी हो गईं। धरती पर रहने वाले हमारे जैसे लोगों के लिए पहाड़ सिर्फ टूरिस्ट स्पॉट है।

मैं दूसरों की तरह सिर्फ टूरिस्ट बनकर नहीं लौटना चाहता था। मुझे यहां की परंपरा करीब से देखनी थी।

रामभज के वहां से चले जाने के बाद मैंने भीम सिंह से अनुरोध किया और हम दोनों उनके घर पहुंच गए।

रामभज के घर घुसते ही किचन और भीतर की तरफ ड्राइंग रूम। पूरे घर में लकड़ी की दीवारें और फर्श पर हर तरफ कालीन और गद्दे।

यहां आकर मालूम चला कि रामभज सिंह घर आए और तुरंत ही ताश खेलने बाहर चले गए थे। घर में उनकी दोनों पत्नियां थीं।

तीसरी पत्नी दुर्गी देवी ने हमारा अभिवादन किया। 52 साल की उम्र और गोल चेहरे वाली दुर्गी देवी ने सिर पहाड़ी अंदाज में स्टोल से ढंक रखा था।

उन्होंने घर के सबसे आखिरी कमरे में चलने का अनुरोध किया, जहां रामभज की पत्नी कुब्जा देवी लेटी हुई थीं।

झक सफेद चेहरा, सिर पर वही पहाड़ी स्टाइल का स्टोल और गले के पास तक झुर्रियां। 65 साल की कुब्जा देवी ने मुझे बैठने का इशारा किया।

मैंने बैठते ही उनसे पूछ लिया,

आपका दुर्गी जी के साथ झगड़ा नहीं होता?

बोलीं, ‘हम तो बचपन में सिर्फ लड़ते ही थे। ये मेरी सगी छोटी बहन है। परिस्थितियों ने ब्याह करा दिया। शादी के बाद से हम नहीं लड़ते।

शादी के वक्त आप लोगों की क्या उम्र थी? मैंने पूछा।

कुब्जा देवी कहने लगी, ‘ये 35 साल के थे। मैं 20 की थी। चार साल बाद जब इनकी फिर से शादी हुई तब मेरी बहन दुर्गी 17 साल की रही होगी।’

मैंने कुब्जा देवी की छोटी बहन और रामभज सिंह की तीसरी पत्नी दुर्गी देवी से बात करनी चाही।

मुझे इस घर में आए बमुश्किल पांच मिनट हुए थे और वो किचन में आवभगत के लिए लग गईं थीं।

मेरे आवाज देने पर किचन से लौटीं गुनगुने पानी के साथ।

मौसम के ठंडे होने का हवाला देकर उन्होंने मुझे पानी दिया और मेरे सामने बैठ गईं।

मैंने पूछा, आपकी जब शादी हो रही थी तो आपने बहन के पति से शादी करने से मना नहीं किया?

जवाब था, ‘मना क्या करती। मैं तो दिन भर गुड्डे-गुड़ियों की शादी कराती रहती थी। बहुत साल बाद मालूम चला कि मेरे साथ तो यही खेल हो गया है। एक दिन पापा ने कहा कि मुझे अब से दीदी के घर रहना है। बस तब से रह रही हूं।’

मैं उनकी बातों से चकित था। मैंने फिर पूछा, तो आपकी बाकायदा शादी नहीं हुई, बस रहने आ गईं?

दुर्गी देवी बताती हैं, ‘जी, शादी तो दीदी की ही हुई। मेरे वक्त तो बस कुछ लोगों ने खाना खाया, गीत वगैरह गाए और मुझे विदा कर दिया। मैं तो बस ऐसे ही आ गई।’

आपने कभी घर वालों से या अपनी बड़ी बहन से शिकायत नहीं की?

‘यहां आकर मुझे कई साल तक समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी। प्रधान जी भी बच्चे की तरह मानते थे। जब मुझे लड़की हुई तब इस बात का एहसास हुआ कि गलती कर दी है।’

हमारी बातचीत जारी थी कि ‘प्रधान जी’ रामभज सिंह घर में दाखिल हुए और कुछ नोटों का बंडल कुब्जा देवी को दिए।

मैंने दुर्गी देवी से सवाल पूछा, “ये आपको पैसे नहीं देते क्या?

‘नहीं जी।’

आपको खराब नहीं लगता?

दुर्गी देवी का चेहरा थोड़ा उतर सा गया। कहने लगीं- ‘पैसे के लिए तो सबको ही लगता है। इस घर की मालिकन तो जीजी ही हैं। हम तो ऐसे ही खुश हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि ये पैसे दें, मगर ये शुरू से उन्हें ही देते आए हैं।’

आपको लगता है कि आप खुश हैं?

दुर्गी देवी की तरफ से जवाब मिला, ‘जब आपके खुद की गलती हो तो खुश रहना पड़ता है। मैंने शादी कर ली, इनकी बात मान ली, यही गलती कर दी। मेरा पहले तो भाग जाने का मन करता था, अब ऐसा कुछ नहीं करता।’

प्रधान जी आपको कम मानते हैं?

‘ये तब तक मुझसे प्यार करते थे, जब तक जीजी को बेटा नहीं हुआ। मुझे बेटी हो गई और दीदी को बेटा हो गया तब से सारी चीजें ही बदल गईं।’

दुर्गी देवी अपनी बात कह ही रहीं थी कि प्रधान जी बीच में बोल उठते हैं, ‘जो मूरख (मूर्ख) होता है उसे शिकंजे में भी ठीक नहीं किया जा सकता।’

समय का खेल देख चुकीं दुर्गी देवी, प्रधान जी की बात बीच में काटती हुई कहती हैं,

‘मूर्ख तो थे ही जो ब्याह कर आ गए।’

रामभज सिंह उन्हें चुप कराने के बाद मुझसे कहते हैं, ‘उम्र का तकाजा होता है, ये कहेगी कि बीस साल का रहूं। परिस्थितियां बदल जाती हैं घर की। जब उंगलियां एक बराबर नहीं हैं तो व्यवहार कैसे हो सकता है।’

आप इंसान की तुलना उंगली से कर रहे हैं? मैंने पूछा…

रामभज जवाब देते हैं, ‘देखिए जी, बात उम्र के तकाजे की है, ये कहेंगी कि पहले जैसे हो जाओ तो कहां संभव है। हमको दिन में 100 लोगों से मिलना रहता है, इंसान क्या-क्या देखे। इन्हें खुश होना चाहिए मगर इनको तो लगता है कि भेद हो रहा।’

मैंने रामभज सिंह से पूछा, दो शादी करने का क्या कारण था?

कहने लगे- ‘यह कुदरत का इशारा था। पहली को लड़का नहीं हुआ। मेरी मां ने जिद की कि लड़का होना ही चाहिए। उनके कहने पर मैंने शादी मजबूरी में कर ली। वैसे हमारे यहां रिवाज भी है।’

आपको नहीं लगता आपने दो लोगों का जीवन अपने साथ जोड़कर दोनों के साथ अन्याय किया?

‘नहीं जी, मुझे ऐसा लगता है। ये लोग भी अपनी सोच बदल कर चलेंगी तो दोनों को एक बराबर मिलेगा। मैंने अपनी तरफ से दोनों पत्नियों को एक बराबर अधिकार दिया है। हमारे यहां पुराना कल्चर है कि अगर बच्चा हो जाता है तो जमीन पर उसका पूरा अधिकार हो जाता है। पूछो इनसे, दोनों काे अधिकार दिया है।’

क्या आपने अपनी बेटी को हिस्सा दिया है?

‘बेटियां कहां लेती हैं हिस्सा। मेरी बेटी ने भी अपने बेटे को दे दिया है। अपनी मर्जी से दे दिया है। मेरी पत्नियों ने भी अपना हिस्सा अपने भाई को दिया है।’

यहां भी देश भर की तरह कानून है कि बेटियों को हिस्सा मिलेगा। मगर यथार्थ किससे छिपा है।

हमारा अगला पड़ाव मां भंगयाणी देवी का मंदिर था। हरिपुरधार के सबसे ऊंचे इलाके पर स्थित यह मंदिर शिमला-सिरमौर बॉर्डर पर है। सामने की तरफ हिमालय दिखता है और दूसरी तरफ से सिरमौर जिले का हरिपुरधार इलाका।

यहां मुझे अनीता से मिलना था जो मंदिर के बाहर प्रसाद-फल की दुकान चलाती हैं। 65 साल की अनीता के चार बच्चे हैं। एक बेटा और तीन बेटियां। उनके पति ने चार शादियां की हैं। अब तीन पत्नियां ही जीवित हैं।

पति श्री रण सिंह बीते साल लंबी बीमारी से चल बसे। उनकी मृत्यु के बाद एक साथ तीन महिलाएं, तीनों पत्नियां मंदिर नहीं जा सकतीं। धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा नहीं बन सकतीं। पति के न होने वाले सारे भेद का शिकार होती हैं।

पहले तो अनीता बात करने को राजी नहीं हुईं। मैं भी उनकी दुकान के पास बैठा रहा। वो अपनी ग्राहकी कर रही थीं, हम उनके बोलने का इंतजार कर रहे थे।

कुछ समय बाद वो खुद ही बोल उठीं, ‘मैंने जब जाना कि ये शादीशुदा हैं तो पिता को बोल दिया कि ऐसा ब्याह नहीं करूंगी। मैंने घर में मां का हाल देखा था। मेरी भी सौतेली मां थी। मेरे पिता ने बस यही कहा कि शादी तो करनी पड़ेगी। जब लगे कि पति तुम्हारी मदद नहीं कर रहा है तब मेहनत कर पेट भर लेना। मुझे मालूम है मेरे साथ गलत हुआ, लेकिन पहले जहां मां-बाप ब्याह देते थे, वहीं रहना होता था।’

पिता की बात मान कर अनीता तीसरी पत्नी के तौर पर रहने आ गईं। यहां उनके चार बच्चे हुए। घर में जब क्लेश शुरू हुआ तो उनके अलग रहने की नौबत आ गई।

अनीता आगे बताती हैं, ‘मेरे चार बच्चे हैं। एक प्रोफेसर है, एक JE है। दो बेटियां हैं दोनों नौकरी करती हैं। एक तो सरकारी स्कूल में है। मैंने तो बच्चों के सहारे जीवन काट दिया।’

आपको किसी से शिकायत नहीं?

‘शिकवा-शिकायत कहानियों में अच्छे लगते हैं। औरत को तो ये सब झेलना ही पड़ता है। किसी को दुख सुनाओ तो वो फायदा लेना चाहता है। मैंने तय किया कि बर्तन मांज कर ही सही अपने बच्चों को पढ़ाऊंगी। मेहनत की खाऊंगी। आज ये दुकान अपनी है। शान से रहती हूं। बच्चे खुश हैं तो मैं उनके साथ खुश रह लेती हूं।’

पति के मरने के दो साल पहले जब अनीता और दूसरी पत्नियों में पैसे-रुपए का बंटवारा हुआ तो अनीता ने जायदाद नहीं ली।

वो यह बात बताते हुए मुस्कुराने लगीं। दो सेकेंड चुप रहकर बोलीं- ‘सबने जायदाद मांगी और मैंने पति।’

अनीता कहा, ‘धन की जगह पति को चुनने के लिए मेरा मन मजबूत रहा, यही बड़ी बात है।’

कमाल है कि पति के परंपरा के नाम पर तीन-तीन महिलाओं के साथ रहने के बाद भी अनीता को अपने मन के मजबूती का जिक्र करना पड़ा।

अनीता कहती हैं कि मैंने पत्नी होने के सभी धर्म निभाए।

पति के धर्म निभाने के सवाल पर वो मुस्कुरा कर रह गईं। उन्हें सच पता था, जिसे बिना कहे समझा जा सकता था। (साभार)

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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