राजनीति बनाम पीड़ा—बयान तो आए, पर राहत नहीं

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21 अप्रैल 2025 को हुए पहलगाम आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर दिया। इस भावुक हिंदी लेख में पढ़ें कैसे अमरनाथ यात्रा की शांत घाटियों में बहा दर्द का सैलाब, और कैसे आस्था फिर भी अडिग रही।”

➡️मोहन द्विवेदी

“जहां कभी बादल प्रेम गीतों की तरह बरसते थे, वहां आज बारूद की गंध तैर रही है। पहलगाम रो रहा है… और उसके आँसू इस बार केवल बारिश नहीं हैं।”

21 अप्रैल 2025 को, जब पूरा देश मानसून की पहली बारिश से राहत की साँस ले रहा था, तब कश्मीर की वादियों में एक बार फिर बारूद की गंध घुल गई। पहलगाम, जो अमरनाथ यात्रा का पवित्र पड़ाव है, अचानक गोलियों की गूंज से कांप उठा। एक काफिले पर हुए आतंकी हमले में 9 श्रद्धालुओं की जान चली गई, जबकि दर्जनों घायल हुए। यह हमला केवल एक काफिले पर नहीं था—यह उस भरोसे पर हमला था जो हर भारतीय के दिल में कश्मीर के लिए बसता है।

“पहलगाम”—नाम ही जैसे सुकून हो

पहलगाम, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘चरवाहों का गाँव’, अपने हरियाले घास के मैदानों, कलकल बहती नदियों और धूप में झिलमिलाती बर्फ़ की चोटियों के लिए जाना जाता है। अमरनाथ यात्रा पर निकलने वाले हज़ारों श्रद्धालु हर साल इसी वादी से होकर पवित्र गुफा तक पहुँचते हैं। यहां आकर किसी को भी लगता है कि अगर जन्नत कहीं है, तो यहीं है। पर अब वही वादी खून से रंगी हुई है, और हवाओं में मातम की सुगंध घुल गई है।

एक माँ का इंतज़ार—जो अब कभी ख़त्म नहीं होगा

“मैंने सुबह ही फोन किया था… कहा था माँ, दर्शन करके फोन करूंगी…” यह शब्द उस माँ के कानों में अब सदा के लिए गूंजते रहेंगे। जम्मू से आई 24 वर्षीय प्रीति शर्मा, जो अपने माता-पिता के साथ पहली बार अमरनाथ यात्रा पर गई थी, इस हमले में मारी गई। उसकी माँ ने कहा, “मुझे नहीं चाहिए अब अमरनाथ का कोई प्रसाद, मेरी बेटी ही मेरा प्रसाद थी…” यह कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगीं।

रक्त से सींची गई आस्था की यात्रा

अमरनाथ यात्रा केवल धार्मिक यात्रा नहीं है, यह श्रद्धा की परीक्षा है। हजारों लोग हज़ारों किलोमीटर दूर से चलकर आते हैं, कठिन रास्तों और ऊँचाई की चुनौतियों को पार करते हैं। लेकिन इस बार आस्था के इस पथ पर आतंक का कांटा चुभ गया। हमला न केवल श्रद्धालुओं की जान ले गया, बल्कि पूरे देश की आत्मा को जख्मी कर गया।

क्या कभी समझेगा कोई इन हमलों की वजह?

कई विश्लेषक इस घटना को “सुरक्षा चूक” कहकर टाल सकते हैं, पर क्या यह कहना पर्याप्त है? क्या कुछ लोगों का ऐसा सोचना कि ‘हिंदू तीर्थयात्री निशाने पर होते हैं’ केवल एक भावना है, या अब एक भयावह यथार्थ बन चुका है? सवाल कई हैं, और जवाब शायद कहीं खो गए हैं कश्मीर की वादियों में, उन बर्फीले पहाड़ों के पीछे, जहां से अक्सर

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गोलियों की आवाजें आती हैं।

सैनिकों की चुप्पी में भी चीखें थीं

हमले के तुरंत बाद मौके पर पहुंचे सेना के जवानों की आँखों में गुस्सा नहीं, दर्द था। एक जवान ने बताया—”हमने एक छोटे बच्चे को उठाया, उसके गाल पर खून था, पर वह बार-बार कह रहा था—’मम्मी कहाँ है?’ हम क्या जवाब देते?” उन जवानों ने जिस बहादुरी से स्थिति को संभाला, वो वाकई सराहनीय है, लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि जब तक ऐसी घटनाएं दोहराई जाती रहेंगी, तब तक यह वीरता भी स्थायी समाधान नहीं बन सकती।

राजनीतिक बयानबाज़ी बनाम इंसानी ज़िंदगी

हमले के चंद घंटे बाद ही राजनीतिक गलियारों में बयानबाज़ियों की होड़ लग गई। कोई इसे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद कहता रहा, तो कोई इसे ‘स्थानीय अलगाववाद की परिणति’ बताता रहा। पर क्या इन बहसों से उन परिवारों को राहत मिलेगी, जिन्होंने अपने बेटे, बेटी, भाई या पिता को खो दिया? “हमें नहीं चाहिए बयान… हमें चाहिए इंसाफ़ और सुरक्षा,” एक शहीद श्रद्धालु की पत्नी की यह पुकार आज भी सोशल मीडिया पर वायरल है।

मीडिया की मशीनी संवेदनाएं

घटना के तुरंत बाद कई मीडिया चैनल घटनास्थल पर पहुंच गए, पर संवेदना की जगह एक दूसरे से ‘पहले रिपोर्टिंग’ की दौड़ शुरू हो गई। टीआरपी की भूख ने मानवीय पीड़ा को खबरों की हेडलाइन बना दिया। लेकिन क्या किसी चैनल ने उस टैक्सी ड्राइवर का नाम लिया जिसने अपनी जान की परवाह किए बिना घायल श्रद्धालुओं को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया?

एक दीपक, जो बुझा नहीं—बल्कि और तेज़ हुआ

जहां एक ओर यह हमला हमें अंदर तक हिला गया, वहीं दूसरी ओर इसने देश के आम नागरिकों को और मजबूती से जोड़ा। दिल्ली, लखनऊ, पुणे, बेंगलुरु जैसे शहरों में श्रद्धांजलि सभाएं हुईं। लोगों ने कैंडल मार्च निकाला, सोशल मीडिया पर ‘#PahalgamMassacre’ ट्रेंड हुआ, और एक आवाज़ गूंजती रही—“हम नहीं झुकेंगे, हम फिर आएंगे।”

आखिर कब रुकेगा यह सिलसिला?

यह सवाल केवल किसी एक सरकार, किसी एक पार्टी या किसी एक धर्म से नहीं है—यह सवाल हम सभी से है। क्या हम इतने असहाय हो चुके हैं कि बार-बार ऐसी घटनाएं सहते रहें? क्या हम केवल मोमबत्तियों की रोशनी में न्याय ढूंढ़ते रहेंगे, या कभी ऐसा दिन आएगा जब पहलगाम की वादी फिर से उसी मासूमियत से मुस्कुराएगी?

उम्मीद की एक किरण—कभी न बुझने वाली

दुख की इस घड़ी में भी उम्मीद ज़िंदा है। वह उम्मीद जो हर माँ अपने बच्चे की सलामती के लिए रखती है। वह उम्मीद जो एक घायल श्रद्धालु की आँखों में थी जब वह कह रहा था—”मैं फिर आऊंगा… अमरनाथ बाबा के दर्शन करने।” और यही उम्मीद है जो पहलगाम को फिर से जिंदा करेगी।

“आतंक का हर वार हमारी आस्था को डिगा नहीं सकता। पहलगाम के ज़ख्म गहरे हैं, लेकिन हम उन्हें प्रेम और साहस से भरेंगे। यह वादा है एक-एक भारतीय का।”

samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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