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स्मृति

“मैं भारत हूँ, भारत मेरा नाम है”, आज भी करोड़ों दिलों में गूंजती है ‘मनोज कुमार’ की आवाज

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भारतीय सिनेमा के इतिहास में जब-जब देशभक्ति की बात की जाएगी, तब-तब ‘भारत कुमार’ का नाम गर्व से लिया जाएगा। मनोज कुमार, जिनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी था, ने न केवल एक अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई, बल्कि एक संवेदनशील लेखक, कुशल निर्देशक और सच्चे राष्ट्रभक्त के रूप में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। 87 वर्ष की आयु में उन्होंने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया, लेकिन अपने जीवन के द्वारा उन्होंने जो सांस्कृतिक और भावनात्मक विरासत छोड़ी है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।

प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा का बीजारोपण

13 जुलाई 1937 को अब पाकिस्तान के ऐबटाबाद में जन्मे मनोज कुमार का जीवन विभाजन की विभीषिका से गुज़रा। बंटवारे के पश्चात उनका परिवार दिल्ली आ बसा। यही वह समय था जब उनके भीतर फिल्मों के प्रति अनुराग जागृत हुआ। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म शबनम में दिलीप कुमार के अभिनय ने उनके मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला। उसी क्षण उन्होंने तय किया कि यदि उन्हें अभिनेता बनना है, तो वह नाम भी ऐसा चुनेंगे, जो दिलीप साहब की याद दिलाए। यहीं से उन्होंने स्वयं को ‘मनोज कुमार’ नाम से नवाजा।

मुंबई की ओर पहला कदम: संघर्ष का आरंभ

9 अक्टूबर 1956 को महज़ 19 वर्ष की आयु में वह सपनों की नगरी मुंबई पहुंचे। न कोई परिचय, न कोई सिफारिश, बस आँखों में सितारों की चमक और दिल में अडिग विश्वास। इस चकाचौंध भरे नगर में उन्होंने भूख, अस्वीकृति और अनगिनत संघर्षों का सामना किया। तमाम रिजेक्शन के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। हर असफलता ने उन्हें और अधिक मजबूत किया।

पर्दे पर पहली झलक और पहचान की ओर कदम

वर्ष 1957 में उन्हें पहली बार फिल्म फैशन में अभिनय का अवसर मिला, जिसमें उन्होंने 90 वर्ष के भिखारी की भूमिका निभाई। यह शुरुआत मामूली थी, परंतु उनकी नज़रों में मंज़िल बहुत ऊँची थी। कांच की गुड़िया (1961) ने उन्हें पहली बार बतौर लीड एक्टर पर्दे पर प्रस्तुत किया। यह फिल्म दर्शकों को पसंद आई और मनोज कुमार के लिए सफलता के द्वार धीरे-धीरे खुलने लगे।

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सफलता की सीढ़ियाँ और देशभक्ति की ओर झुकाव

1962 में आई विजय भट्ट की फिल्म हरियाली और रास्ता में उनकी जोड़ी माला सिन्हा के साथ बहुत सराही गई। इसके पश्चात शादी, डॉ. विद्या, गृहस्थी, और रेशमी रूमाल जैसी फिल्मों में उनका अभिनय दर्शकों के दिलों में उतरने लगा। किंतु वर्ष 1964 में राज खोसला निर्देशित वो कौन थी? उनकी पहली बड़ी हिट सिद्ध हुई। फिल्म के गानों लग जा गले और नैना बरसे रिमझिम ने उन्हें स्थायित्व दिलाया।

भारत कुमार की उपाधि और देशभक्ति की मिसाल

वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म शहीद, जो भगत सिंह के जीवन पर आधारित थी, ने मनोज कुमार को एक नये मुकाम पर पहुंचाया। इस फिल्म को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी सराहा। उन्होंने ही मनोज कुमार को “जय जवान, जय किसान” के नारे पर आधारित फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस प्रेरणा से उपजी उपकार (1967) न केवल ब्लॉकबस्टर सिद्ध हुई, बल्कि इसने उन्हें ‘भारत कुमार’ की उपाधि दिलाई। यह फिल्म भारतीय संस्कृति और कृषक जीवन की महिमा का जीवंत चित्रण थी।

निर्देशन में सिद्धहस्त और ‘क्रांति’ का क्रांतिकारी अध्याय

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मनोज कुमार न केवल अभिनेता थे, बल्कि उन्होंने निर्देशक के रूप में भी असाधारण योगदान दिया। पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान, और क्रांति उनकी निर्देशकीय प्रतिभा के उदाहरण हैं। विशेष रूप से क्रांति (1981) का निर्माण एक दंतकथा की भांति है। जब निर्माता पीछे हटे, तब उन्होंने अपनी संपत्तियाँ गिरवी रख दीं। यह फिल्म दिलीप कुमार, शशि कपूर, हेमा मालिनी जैसे दिग्गजों से सजी थी। इसने शोले जैसी सुपरहिट फिल्म को भी पीछे छोड़ दिया और 96 दिनों तक हाउसफुल रही। यहां तक कि फिल्म के नाम पर टी-शर्ट, जैकेट्स और अंडरवियर तक बिकने लगे।

मनोज कुमार की एक मशहूर फिल्म का दृश्य

हर शैली में पारंगत कलाकार

मनोज कुमार ने रोमांस, सामाजिक ड्रामा और देशभक्ति तीनों विधाओं में खुद को साबित किया। नील कमल, अनीता, आदमी, शोर जैसी फिल्मों में उन्होंने समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया। उनका अभिनय स्वाभाविक और संवेदनशील था, जिसमें आम जनमानस खुद को देख पाता था।

उनके सहकर्मियों की स्मृतियाँ

अभिनेत्री आशा पारेख, जिन्होंने मनोज कुमार के साथ दो बदन, उपकार जैसी फिल्मों में काम किया, भावुक स्वर में कहती हैं,

“काश हमने साथ में और फिल्में की होतीं।” वहीं, अरुणा ईरानी ने उन्हें अपना गुरु बताते हुए कहा, “उनकी सादगी और सौम्यता मुझे हमेशा याद रहेगी।” उन्होंने साझा किया कि कैसे मनोज कुमार बीमारी के अंतिम दिनों में भी गरिमापूर्ण बने रहे।

अंतिम दिनों की पीड़ा और अवसान

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मनोज कुमार लंबे समय से बीमार चल रहे थे। फेफड़ों में पानी भर जाने की तकलीफ़, बार-बार अस्पताल में भर्ती होना और बढ़ती उम्र की सीमाएँ उन्हें धीरे-धीरे कमज़ोर करती रहीं। लेकिन उनके आत्मबल और जीवन के प्रति दृष्टिकोण में कभी कमी नहीं आई। 2025 की 4 अप्रैल की सुबह, जब यह समाचार आया कि ‘भारत कुमार’ नहीं रहे, तो सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, पूरा देश शोक में डूब गया।

रवि किशन और युवा पीढ़ी की श्रद्धांजलि

लोकप्रिय अभिनेता और सांसद रवि किशन ने कहा,

“मनोज जी का जाना सिनेमा जगत के इतिहास में काला दिन है।” उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि कैसे मनोज कुमार की फिल्मों ने असल भारत की तस्वीर दिखाई और संस्कारों को परदे पर जीवंत किया।

एक प्रेरणा, एक प्रतीक

मनोज कुमार का जीवन केवल सिनेमा तक सीमित नहीं था। यह एक ऐसे व्यक्ति की गाथा है, जिसने विषम परिस्थितियों में भी अपने उद्देश्य से समझौता नहीं किया। उनका नाम केवल अभिनेता की तरह नहीं, अपितु राष्ट्रभक्त और सामाजिक विचारक के रूप में लिया जाएगा। उन्होंने दर्शकों को न केवल मनोरंजन दिया, बल्कि देश और समाज से जुड़ने की भावना भी प्रदान की।

उनका यह अमर कथन,

“मैं भारत हूँ, भारत मेरा नाम है”, आज भी करोड़ों दिलों में गूंजता है। भले ही वह आज हमारे बीच न हों, परंतु ‘भारत कुमार’ के रूप में वह सदा अमर रहेंगे।

➡️अनिल अनूप

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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