अनिल अनूप
भारतीय सिनेमा ने 111 वर्षों की अविस्मरणीय यात्रा पूरी कर ली है। 1913 में दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्मित पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र से लेकर आज के अत्याधुनिक डिजिटल सिनेमा तक, भारतीय फिल्म उद्योग ने कई महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं। इस आलेख में हम भारतीय सिनेमा के 111 वर्षों की यात्रा, इसके प्रमुख बदलावों, तकनीकी प्रगति, समाज पर प्रभाव, तथा भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
प्रारंभिक दौर: मूक फिल्मों का युग (1913-1931)
भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1913 में दादा साहेब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र से हुई थी। यह एक मूक फिल्म थी और इसे भारत की पहली पूर्ण लंबाई की फीचर फिल्म माना जाता है। इस दौर में संवाद नहीं होते थे, बल्कि भाव-भंगिमा और संगीत के माध्यम से कहानी प्रस्तुत की जाती थी।
1910 और 1920 के दशक में कई मूक फिल्में बनीं, जिनमें धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर आधारित विषय अधिक होते थे। इस युग के प्रमुख फिल्मकारों में दादा साहेब फाल्के के अलावा आर. एन. मंडल, चंदुलाल शाह और हिमांशु राय प्रमुख थे। 1920 के दशक के अंत में कोलकाता, मुंबई और चेन्नई भारतीय सिनेमा के प्रमुख केंद्र बन गए।
आवाज का दौर: टॉकी फिल्मों की शुरुआत (1931-1947)
1931 में भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नया मोड़ आया जब आलम आरा नामक पहली बोलती फिल्म प्रदर्शित हुई। इस फिल्म के निर्माता अर्देशिर ईरानी थे। यह फिल्म हिंदी सिनेमा के लिए क्रांतिकारी साबित हुई और इसके बाद भारतीय सिनेमा में ध्वनि का प्रचलन शुरू हुआ।
इस युग में संगीत आधारित फिल्मों का चलन बढ़ा। देवदास (1935), अछूत कन्या (1936) और किसान कन्या (1937) जैसी फिल्मों ने समाज में जाति और वर्ग संघर्ष के मुद्दों को उठाया।
स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय सिनेमा (1947-1960)
स्वतंत्रता के बाद भारतीय सिनेमा ने एक नया रूप लिया। इस दौर में सामाजिक और राष्ट्रवादी विषयों पर आधारित फिल्में बनने लगीं। महबूब खान की मदर इंडिया (1957), बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) और गुरु दत्त की प्यासा (1957) जैसी फिल्मों ने भारतीय समाज की वास्तविकताओं को प्रस्तुत किया।
इस समय भारतीय फिल्म उद्योग को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलने लगी। सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली (1955) ने कान्स फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार जीतकर भारतीय सिनेमा को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया।
संगीत और रोमांस का स्वर्ण युग (1960-1980)
1960 और 1970 का दशक भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाता है। इस दौर में हिंदी सिनेमा में संगीत, रोमांस और पारिवारिक कहानियों का वर्चस्व रहा। राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन इस युग के प्रमुख सितारे थे।
राजेश खन्ना को भारत का पहला सुपरस्टार कहा जाता है। उनकी फिल्में अराधना (1969), आनंद (1971) और अमर प्रेम (1972) दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुईं।
1970 के दशक में ‘एंग्री यंग मैन’ के रूप में अमिताभ बच्चन का उदय हुआ। उनकी फिल्में जंजीर (1973), शोले (1975) और दीवार (1975) ने भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं और संघर्षों को दिखाया।
विविधता और व्यावसायीकरण (1980-2000)
1980 और 1990 का दशक भारतीय सिनेमा के व्यावसायीकरण का युग था। इस दौरान मसाला फिल्मों, एक्शन और रोमांस का मिश्रण देखने को मिला। मिथुन चक्रवर्ती, अनिल कपूर, गोविंदा और शाहरुख खान इस दौर के प्रमुख अभिनेता बने।
1990 के दशक में शाहरुख खान, सलमान खान और आमिर खान जैसे अभिनेताओं ने हिंदी सिनेमा में नए ट्रेंड सेट किए। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), हम आपके हैं कौन (1994) और कुछ कुछ होता है (1998) जैसी फिल्मों ने पारिवारिक मूल्यों को केंद्र में रखा और दर्शकों के बीच लोकप्रियता हासिल की।
नई सदी और तकनीकी क्रांति (2000-2020)
21वीं सदी में भारतीय सिनेमा ने तकनीकी प्रगति और डिजिटल क्रांति को अपनाया। कंप्यूटर जनित ग्राफिक्स (CGI) और VFX का प्रयोग बढ़ा। इस दौर की कुछ महत्वपूर्ण फिल्में थीं:
लगान (2001) – ऑस्कर के लिए नामांकित हुई।
गजनी (2008) – पहली हिंदी फिल्म जिसने 100 करोड़ का कारोबार किया।
बाहुबली सीरीज (2015-2017) – भारतीय सिनेमा में VFX का शानदार उपयोग।
OTT प्लेटफॉर्म्स जैसे Netflix, Amazon Prime और Disney+ Hotstar के आने से भारतीय सिनेमा की पहुंच और अधिक बढ़ गई।
भविष्य की संभावनाएं (2020 और आगे)
भारतीय सिनेमा अब वैश्विक स्तर पर और अधिक पहचान बना रहा है। आरआरआर (2022) जैसी फिल्मों ने ऑस्कर जीतकर भारतीय सिनेमा की प्रतिष्ठा को और ऊंचा किया।
अब दर्शक केवल बड़े बजट की फिल्मों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे ओटीटी प्लेटफार्म पर विविध विषयों की फिल्में और वेब सीरीज भी देख रहे हैं।
111 वर्षों की इस यात्रा में भारतीय सिनेमा ने अनेक बदलाव देखे हैं। मूक फिल्मों से लेकर आधुनिक VFX आधारित फिल्मों तक, यह उद्योग लगातार विकसित होता रहा है। भारतीय सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण भी है। यह देश की संस्कृति, परंपरा और बदलावों को दर्शाने का एक सशक्त माध्यम बना हुआ है।
भविष्य में भारतीय सिनेमा और भी नई ऊंचाइयों को छूने की क्षमता रखता है, और यह देखना रोमांचक होगा कि अगली पीढ़ी के फिल्मकार इस उद्योग को किस दिशा में लेकर जाते हैं।