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स्मृति

फणीश्वरनाथ रेणु: मनुष्य की परतदार यातनाओं का कथा-शिल्पी

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अनिल अनूप

फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी कथा साहित्य के एक प्रतिष्ठित रचनाकार थे, जिनका जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में हुआ था। उनकी लेखनी ने भारतीय ग्रामीण जीवन के यथार्थ को बेहद प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया।

प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव

रेणु का बचपन स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षमय माहौल में बीता। उनके पिता शिलानाथ मंडल न केवल एक संपन्न किसान थे, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रूप से जुड़े थे। घर में खादी और चरखा आम बात थी, जिससे बचपन में ही रेणु के मन में देशभक्ति की भावना जागी। यही कारण था कि वे बहुत कम उम्र में ही आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

1930-31 में, जब वे अररिया हाई स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने स्कूल की हड़ताल का नेतृत्व किया। इसके कारण उन्हें सजा भी मिली, लेकिन इसी के साथ वे इलाके में ‘बहादुर सुराजी’ के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इसके बाद, 1942 में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट किया और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े।

इतना ही नहीं, 1950 में उन्होंने नेपाल के क्रांतिकारी आंदोलन में भी भाग लिया। नेपाल में राजशाही के दमन के खिलाफ वे वहां की जनता के संघर्ष का हिस्सा बने और सक्रिय भूमिका निभाई।

साहित्यिक जीवन की शुरुआत और प्रसिद्धि

1942 के आंदोलन के दौरान जेल जाने के बाद, 1944 में उन्होंने अपनी पहली परिपक्व कहानी ‘बटबाबा’ लिखी। इसके बाद ‘पहलवान की ढोलक’ नामक कहानी विश्वमित्र पत्रिका में प्रकाशित हुई, जिससे उनकी लेखनी को पहचान मिलने लगी।

हालांकि, उनकी साहित्यिक ख्याति 1954 में प्रकाशित ‘मैला आंचल’ से आसमान छूने लगी। यह उपन्यास हिंदी साहित्य में आंचलिकता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। इस उपन्यास की अपार सफलता के बाद वे हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ लेखकों में गिने जाने लगे।

राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता

राजनीतिक चेतना से संपन्न रेणु सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध हमेशा संघर्षरत रहे। 1975 में लागू आपातकाल के विरोध में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की और इसके प्रतिरोध में पद्मश्री सम्मान लौटा दिया। इसके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा और पुलिस की यातनाएं भी सहनी पड़ीं।

महत्वपूर्ण कृतियां और लेखन शैली

फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाता है। उन्हें ‘आज़ादी के बाद का प्रेमचंद’ भी कहा जाता है। उनके उपन्यासों और कहानियों में ग्रामीण जीवन का सूक्ष्म चित्रण देखने को मिलता है।

उनकी प्रमुख कृतियों में शामिल हैं

उपन्यास: मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस, कितने चौराहे, दीर्घतपा, पल्टू बाबू रोड

कहानी संग्रह: ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, अच्छे आदमी, एक श्रावणी दोपहरी की धूप

उनकी लेखन शैली में वर्णनात्मकता, मनोवैज्ञानिक गहराई, और आंचलिक शब्दों का प्रचुर प्रयोग देखा जाता है। उनके पात्र जीवन के बेहद करीब होते हैं, जिससे उनकी रचनाएं पाठकों से गहरे स्तर पर जुड़ती हैं।

अंतिम दिन और विरासत

1975 में आपातकाल समाप्त होने के बाद, लोकतंत्र की रक्षा के उनके संघर्ष को सफलता मिली। हालांकि, वे ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सके। 11 अप्रैल 1977 को वे पेप्टिक अल्सर के कारण इस दुनिया से विदा हो गए।

फणीश्वरनाथ रेणु का योगदान हिंदी साहित्य को नया आयाम देने वाला था। उनकी कृतियां आज भी भारतीय ग्रामीण जीवन और सामाजिक यथार्थ का दस्तावेज मानी जाती हैं। वे सिर्फ एक महान साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक सच्चे देशभक्त और क्रांतिकारी विचारक भी थे। उनकी लेखनी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनी रहेगी।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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