-बल्लभ लखेश्री
यूं तो यह गजल फैज अहमद फैज ने लिखी है मगर हममें से अधिकांश लोग जब भी इस शेर का जिक्र मेहदी हसन की गजल के रूप में ही करते हैं। यही वह गजल है जिससे मेहदी हसन की आवाज ने लोकप्रियता का आसमान छूआ था।
आज जब मेहदी हसन इस दुनिया में नहीं है और उनकी गजलें उनके न होने का अहसास नहीं होने देती मगर फिर भी उन्हें लाइव कार्यक्रम में सामने बैठ कर सुनने का रूहानी आनंद सभी खूब याद करते हैं और तब उनके न होने की कसक से भर कर यही कहते हैं,
‘उस्ताद, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।’
अपने फन के इस महा नायक की काफिया और रदीफ पर जादुई पकड़ थी। गायकी की दुनिया के शंहशाह जो गंगा यमुनी तहजीब के अनमोल रत्न थे। इनके फनकार में आध्यात्मिक और रोमांटिकता का लाजवाब मेल पाया जाता है। इससे भी जुदा बात यह है कि अपनी मिट्टी में खोने की जिद्दी तमन्ना का जुनून देखते ही बनता है ।अपने लहू का आखरी कतरा इंसानियत, तहजीब और अजमत पर मिटने का जुनून सर पर चढ़ चढ़ कर बोलता था। फन का ऐसा किरदार , जिनका कर्ज हम रहती दुनिया तक चुका नहीं पाएंगे ।
हुनर किसी सीमाओं का मोहताज नहीं होता है, वह भी आवाज को सरहद के पार जाने से कोई रोक नहीं सकता है ।
शायद इसलिए राजस्थान के लूणा गांव(झूझनु) की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहंदी हसन तक पहुंच जाती है। और मेहंदी की ग़ज़ल यहां आने के लिए छटपटा ने लगती थी। इस माटी से उखड़ जाने के बावजूद भी बार-बार अपनी जन्म भूमि पर आने को बेताब थे।
राजस्थान के आंचल में झुंझुनू जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहंदी हसन की आवाजें सरगम की महक मौजूद है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में लूणा गांव को अलविदा कह पाकिस्तान चले गए थे ।लेकिन इस गांव की यादें आज तलक उनका पीछा करती रही हैं । वक्त के साथ उनके गजली रसिया साथी भी अब इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं।
लेकिन गांव की आबोहवा में, मुंडेर,दरखतों और खेतों में उनकी खुशबू आज भी महसूस की जा सकती है।
मेहंदी हसन को शेखावाटी की धरती हमेशा अपनी और खींचती रही ।जो उनके बेइंतहा मोहब्बत का सबूत रहा है। पाकिस्तान में भी उनके परिवार के सभी शेखावाटी वेशभूषा और भाषा का उपयोग करते आ रहे थे।
मेहंदी हसन 1980 में राजकीय अतिथि के रूप में भारत आए ।साथ कुछ दिन लूणा गांव में बिताने भी थे ।गांव वाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे । गजल उस्ताद यहां की सर जमीन की पुरानी यादों में खो गए थे। उन यादों की रेतीली लहरों में उनके चेहरे पर खुशी और गम का बेमिसाल मिश्रण दिखाई दे रहा था ।इस यात्रा में उनका जवान बेटा भी उनके साथ था।मेहंदी हसन की ललक और तड़प देखकर बेटा भी हैरान था उन्होंने बेटे की और देखकर कहा:- “यह मेरी भूमि है, यहीं रेत के टिलों के बीच मैं अपने दोस्तों के संग लोट-पोट होता, पड़ता, गिरता और खेलता था ।और यहीं से संगीत पहली बार मेरी जिंदगी में आया”।
इस यात्रा को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार ईश मधु तलवार ने उन्हें अपने चचेरे भाई के घर मिट्टी के आंगन पर बैठकर बाजरे की रोटी एवं चटनी खाते देखा। इतना ही नहीं मेहंदी हसन को राजकीय अतिथि गृह में ठहरने की सुविधा दी गई थी। लेकिन उन्होंने बालू रेत के टीलों पर खाट लगाकर लेटना पसंद किया।
उस काफिले के साथ दिल्ली से मीडिया, विदेशी मीडिया ,आकाशवाणी, दूरदर्शन और पत्रकारों का एक समूह था। जिसमें उस समय के सबसे कम उम्र के पत्रकार अनिल अनूप भी उस काफिले का हिस्सा थे । यहां पर इस बात का जिक्र करना भी लाजमी है कि इस आलेख में वर्णित चर्चा साभार अनिल अनूप की जबानी हैं।
एक जुदा हुई पैदाइशी मिट्टी से किसी इंसान को इतनी मुहब्बत हो सकती है, जब मेहंदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद में पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी को चूम चूम कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए सरकारी मेहमान बनकर के जयपुर आए थे। और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव लाया गया ।
सड़क के किनारे एक टीले पर छोटा सा एक मंदिर था उस मंदिर पर नजर पड़ते ही मेहंदी हसन के कारों का काफिला एकाएक रूक गया। फिर तो मेंहदी हसन का अन्दाज़ देखते ही बनता था। लोटपोट होकर मेंहदी पलटिया खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि माटी और लाल ऐसे मिला करते हैं। ऐसा लग रहा था जैसे माटी की गोद में उनकी जनत हैं।
भारत की यात्रा के दौरान मेहंदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया ” महेंदो आ ग्यों हैं, महेंदो आ ग्यो है “। मेहंदी हसन जहां जाते लोग उनका छाछ, रावड़ी, दूध और दही से स्वागत करते। जहां सद्भावना का संगम देखते ही बनता।
इस यात्रा में झुंझुनू के जिला कलेक्टर ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया था। लेकिन मेहंदी हसन बिना बताए झुंझुनू की एक बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर जा पहुंचे । और वहां मांग कर लहसुन की चटनी के साथ में बाजरे की रोटी खाई । प्रशासन के लोग रात भर मेहंदी हसन को ढूंढते रहे।
हालांकि वक्त के तकाजे के साथ मेहंदी हसन के हम उम्र लोग अब नहीं मिलेंगे क्योंकि गांव में अब नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है। लेकिन वह इतना जरूर जानती है कि इस गांव का मेहंदी हसन संगीत की महफ़िलों में गजल सम्राट था। जिन लोगों ने मेहंदी हसन को नहीं देखा वे भी उनकी आवाज को अदब और सम्मान देते हैं। शायद इह वक्त मेहंदी हसन नहीं है ,गजल भी नहीं है । लेकिन ये तराने काफी कुछ बयां करते हैं कि:
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे तेरी महफिल में लेकिन हम ना होंगे…
बताया जा रहा हैं कि मेहंदी हसन की बदौलत ही लूणा को उस मंदिर और मजार तक सड़क उपहार के रूप में प्रशासन द्वारा दी गई जो गांव तक जाती है ।कुछ कहानी यह भी बताती है कि अपने स्वरों की दुनिया में राज करने वाले मेहंदी हसन पहलवानी भी किया करते थे।
पाकिस्तानी फिल्म ‘जीनत’ की ग़ज़ल “रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गए, पहले जां, फिर जानेजां, फिर जानेजाना हो गए” हो या अहमद फराज की ग़ज़ल “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ” को लोगों ने खूब पसंद किया। किसी के लिए “पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है” ग़ज़ल मेहदी हसन की प्रतिनिधि ग़ज़ल है, तो कोई “केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश” को सुनकर मेहदी हसन के जरिए राजस्थान की प्रसिद्ध मांड को शिद्दत से जी लेता है।
प्रख्यात गीतकार गुलजार ने एक साक्षात्कार में बताया था कि भीड़ से एकांत पाने के लिए मेहदी हसन अक्सर उनके घर आ जाया करते थे। ऐसी ही एक शाम गुलजार ने अभिनेत्री रेखा की मुलाकात मेहदी हसन से करवाई थी।
रेखा भी मेहदी हसन की बड़ी प्रशंसक थीं। यूट्यूब पर 1983 में बीबीसी द्वारा लिया गया एक इंटरव्यू मौजूद है, जिसमें रेखा अपनी खर्ज युक्त आवाज में मेहदी हसन की गाई ग़ज़ल ‘मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो’ गाती देखी और सुनी जा सकती हैं।
आज भी शाम की झुरमुट में यदि लोग गांव की गलियों से गुजरते हैं तो गांव के छान छपरों में धुआं उठता है। हवा में लहराते दरखत से मेहंदी हसन की गजल गुनगुनाती महसूस होती हैं :
यह धुआं कहां से उठता है, देखो तो दिल की जान से उठता है…
मेहंदी हसन के पिता उस्ताद अजीम खान भी अवल दर्जे के शास्त्रीय संगीतकार थे और उनके दादा इमाम खान जो अपने वक्त के जाने-माने दरबारी गायक थे। मेहंदी हसन को संगीत की शोहरत और आवाज का तोहफा उन्हें पारिवारिक विरासत के रूप में मिला ।
लूणा गांव की सरकारी स्कूल के परिसर में ही पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहंदी हसन के दादा इमाम खान की मजार है ।बीते ज़माने में ये मजार साम्प्रदायिक सद्भाव की अनुठी कड़ी थी। मजार जर्जर अवस्था में थी ।लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मेहंदी हसन निजी यात्रा पर पाक से इस मजार को ठीक करवाने के लिए आए । तभी झुंझुनू से अपने साथ दो कारीगरों को लेकर आए थे । फर्ज के मुताबिक मजार पर कुछ निर्माण करवाया । मेहंदी हसन की इस यात्रा के पीछे छिपी उनकी मुल्की मुहब्बत और पुस्तैनी इक़बाल का दर्द महसूस किया जा सकता है ।अपनी जमीन से उखड़ जाने पर भी उनकी वतन परस्ती बेमिसाल थी।
लेकिन अब मजार की बदहाली देखकर के रोना आता है ।मजार अभी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है जितना उसके पास खड़ा एक सूखा दरखत। यह मजार मानों मेहंदी हसन को बुलाती रहती है कि :
“याद आए तुम याद आए, और तुम्हारे साथ जमाने याद आए”।
मेहंदी हसन के जमाने के हिन्दू बुजुर्ग लोग भी जुम्मे पर इस मजार पर हो आते थे। बताया जाता है कि मेहंदी हसन अपने अजीज मित्र नारायण सिंह से बेपनाह याराना रखते थे ।नारायण सिंह की कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है उनके परिवार के अनुसार मेहंदी हसन के दादा इमाम खान से उन्होंने संगीत की तालीम ली थी । आध्यात्मिक संगीत में उनकी रुचि थी, लेकिन मेहंदी हसन ने शास्त्रीय रागी से गजल को जोड़ा कर प्रसिद्धि प्राप्त की है। नारायण सिंह ने कुरान का पूरा अध्ययन कर रखा था। साथ-साथ रामचरितमानस के उर्दू अनुवाद की दुर्लभ पुस्तक भी मेंहदी हसन के पास थी।
लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में मेहंदी हसन ने ठुमरी ,ख्याल और दादर में गायकी सीख ली थी ।अपने पिता उस्ताद अजीम खान से भी उन्होंने शास्त्री गायन की तालीम ली थी। शास्त्रीय संगीत और गज़ल दोनों में महारत हासिल मेहंदी हसन की स्वर लहरिया आज भी सुनाई देती है। और वो तान इस धरती पर उनकी रूह को खींच कर लाने का आभास दिलाती है। पूरे गांव की बहती फिजा में मेहंदी हसन की मौजूदगी का एहसास लगातार रहता है ।लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने खुलकर सामने नहीं आते हैं। हां इतना जरूर हैं कि उस फनकार को समय की परतें आज तलक दबा नहीं पाई हैं। अपने जीवन के अंतिम सफर में मेहंदी हसन अपनी माटी को चूमने के लिए आए तो अपने गजल के शहर में गुनगुनाते देखे गए :
“अबके हम बिछड़े तो, सायद ख्वाबों में मिले ।जैसे सूखे हुए फूल, किताबों में मिले ।'”
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."