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राजनीति ही है साहब, यहां कुछ भी हो सकता है….अब आप ही आंकड़े बिठाएं 2024 चुनाव के…

क्या 2024 लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष एकजुट हो पाएगा?

दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट 

2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता की गंभीर कोशिश शुरू होनी ही थी कि इसे लेकर गहरा विरोधाभास सामने आ गया। विपक्षी एकता की जगह गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों का तीसरा मोर्चा बनाने की बात होने लगी। समाजवादी पार्टी (SP) के चीफ अखिलेश यादव ने कोलकाता में पश्चिम बंगाल की सीएम और टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी से मुलाकात की और इस मोर्चे के बारे में सार्वजनिक तौर पर बात की। उधर, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव (KCR) पहले से ही ऐसे मोर्चे की बात कर रहे हैं। इन नेताओं ने पिछले दिनों कई दफा सार्वजनिक मंच से कहा है कि वे नया मोर्चा बनाएंगे, जिसमें कांग्रेस की जगह नहीं होगी। दूसरी ओर, कांग्रेस ने विपक्षी एकता की पहल का समर्थन तो किया, लेकिन तीसरे मोर्चे की संभावना से साफ इनकार कर दिया।

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इन हालात में एक बार फिर सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि क्या यह विपक्षी एकता की पहल कामयाब हो पाएगी? क्या सभी क्षेत्रीय दल इस विचार से सहमत हो सकते हैं? सवाल इसलिए उठा क्योंकि इसी बीच यह तथ्य सामने आया कि क्षेत्रीय दलों का एक वर्ग बिना कांग्रेस के किसी भी विपक्षी मोर्चे की पहल से सहमत नहीं है। नीतीश कुमार, उद्धव ठाकरे, एम के स्टालिन, शरद पवार जैसे नेता कई बार कह चुके हैं कि बिना कांग्रेस के कोई मोर्चा संभव नहीं है। तीसरे मोर्चे के लिए सबसे सक्रिय ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और KCR रहे हैं। इन्हें दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का भी परोक्ष रूप से समर्थन मिलता रहा है। KCR इस सिलसिले में कई दलों के नेताओं से मुलाकात भी कर चुके हैं।

कांग्रेस की गंभीरता पर उठ रहे सवाल

इन नेताओं का आरोप है कि कांग्रेस विपक्षी एकता की दिशा में गंभीर नहीं है। वह अति-महत्वाकांक्षा का शिकार भी है। इन दलों का कांग्रेस को सुझाव है कि वह उन राज्यों में बीजेपी से मुकाबला करे, जहां दोनों में सीधी लड़ाई है। वे तर्क देते हैं कि 2014 और 2019 में ऐसी लगभग 225 सीटों में से बीजेपी 200 से ऊपर सीटें जीतने में सफल रही थी। ऐसे में अगर कांग्रेस इन सीटों पर फोकस करेगी तो अधिक लाभ होगा। इनका कहना है कि बीजेपी और कांग्रेस में सीधी लड़ाई वाली इन सीटों पर जीत-हार का यही अनुपात बना रहा तो विपक्षी दलों के एक होने का भी अधिक लाभ नहीं होगा। वे बीजेपी को नहीं रोक सकते।

कांग्रेस तीसरे मोर्चे को खारिज तो करती रही है, लेकिन पार्टी का एक वर्ग इस बात से सहमत है कि विपक्षी एकता की दिशा में उसकी तरफ से उतनी गंभीरता से पहल नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी। यही कारण है कि नीतीश कुमार, शरद पवार जैसे कांग्रेस की अगुआई वाले मोर्चे के हिमायती भी कांग्रेस की सुस्ती पर चिंता दिखा चुके हैं।

कांग्रेस शुरू से खुद को विपक्षी दलों का अगुआ मानती रही है। उसका कहना है कि विपक्ष की एकता की कोई भी पहल उसके बिना आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। वह शुरू से तीसरे मोर्चे की संभावना को खारिज करती रही है। वह विपक्षी एकता में भी नेतृत्व की चाबी अपने हाथ में ही रखना चाहती है। इसीलिए तीसरे मोर्चे की किसी गंभीर पहल से खुद को अलग रखती है। कांग्रेस का आकलन है कि तीसरा मोर्चा जितना प्रभावी होगा, उसकी अपनी प्रासंगिकता उतनी ही कम होगी। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने पहले ही कांग्रेस को किनारे कर दिया है। इसीलिए पार्टी विपक्षी स्पेस को अब और साझा करने को तैयार नहीं है।

ऐसे में स्वाभाविक ही विपक्षी एकता की ताजा पहल को कांग्रेस पर दबाव बढ़ाने का प्रयास भी बताया जा रहा है। हालांकि जानकारों का मानना है कि आगे यह पहल किस दिशा में बढ़ेगी, इस बारे में अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। इस साल कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच है। इन राज्यों के चुनाव परिणाम ही कांग्रेस की सौदेबाजी की क्षमता निर्धारित करेंगे। कांग्रेस की यही क्षमता तय करेगी कि विपक्ष का तीसरा मोर्चा बनेगा या एक ही मोर्चा होगा।

तीसरा मोर्चा नई हसरत नहीं

गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों का तीसरे मोर्चे का गठन कोई नई बात नहीं है। नब्बे के दशक में ये दल सियासी धुरी बने थे और तब केंद्र में सरकार का गठन भी किया था, लेकिन 2014 के बाद हालात बदले हैं। देश ने केंद्र में बीजेपी के पूर्ण बहुमत वाली गठबंधन सरकार देखी। ऐसे में तब और अब के हालात में तुलना नहीं की जा सकती। तीसरा मोर्चा बनाने की दिशा में KCR की यह पहली कोशिश है। 2019 आम चुनाव से पहले वह इसकी कोशिश कर चुके हैं। उन्होंने इस फ्रंट में खुद के लिए डेप्युटी पीएम पद का फॉर्म्युला भी तय कर लिया था। आम चुनाव से पहले फेडरल फ्रंट बनाने की दिशा में उन्होंने अलग-अलग राज्यों का दौरा भी किया था। तब मामला बात-मुलाकात से आगे नहीं बढ़ सका।

वहीं, क्षेत्रीय दलों की प्राथमिकता सिर्फ सियासी जीत या बीजेपी को हराना भर नहीं है। उन्हें अपनी सियासी जमीन भी बचानी है। उन्हें पता है कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी मोर्चा बना तो कहीं न कहीं उन्हें अपने सियासी जमीन छोड़नी पड़ेगी। अभी जितने क्षेत्रीय दल हैं, उनमें अधिकतर कांग्रेस के कमजोर होने की कीमत पर ही पनपे हैं। ऐसे में वे कांग्रेस को सीमित भूमिका में देखना पसंद करते हैं। इसलिए तीसरे मोर्चे का विकल्प स्वाभाविक ही उन्हें सही लगता है।

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