google.com, pub-2721071185451024, DIRECT, f08c47fec0942fa0
बतकही

राजनीति में “अंडा” फूटा, विचारों का “ऑमलेट” बन गया

IMG-20250425-WA1484(1)
IMG-20250425-WA0826
IMG-20250502-WA0000
Light Blue Modern Hospital Brochure_20250505_010416_0000
IMG_COM_202505222101103700

➡️अनिल अनूप

अखिलेश यादव द्वारा योगी आदित्यनाथ को “अंडा” कहने पर आधारित यह व्यंग्यात्मक लेख भारतीय राजनीति की भाषा, स्तर और दृष्टिकोण की समीक्षा करता है। पढ़िए यह गहन, गंभीर और आलोचनात्मक विश्लेषण।

जब राजनीति भाषा से नीचे फिसलती है

राजनीति वह पवित्र भूमि होती है जहाँ शब्दों से विचारों की खेती होती है, और जहाँ वाक्यांशों से भविष्य के सपने बोए जाते हैं। परंतु कभी-कभी यही भूमि कीचड़ में बदल जाती है, जहाँ बीज नहीं, छींटाकशी की गूंज सुनाई देती है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसा ही क्षण तब आया जब समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को “अंडा” कह दिया।

यह शब्द अकेला नहीं था। इसके साथ थी हंसी, कटाक्ष और राजनीतिक रणनीति की गहराइयाँ, जो देखने-सुनने में हास्यस्पद भले लगे, पर भीतर से लोकतंत्र की गंभीर क्षति का संकेत देती हैं।

‘अंडा’: एक शब्द, अनेक संकेत

यदि हम “अंडा” शब्द को केवल उसके शाब्दिक अर्थ में देखें, तो यह एक भोजन है—प्रोटीन का स्रोत। किंतु जब यही शब्द राजनीति की जुबान में ढल जाए, तब इसका रूप और रंग दोनों बदल जाते हैं।

अखिलेश यादव ने “अंडा” शब्द का प्रयोग जिस संदर्भ में किया, वह यकीनन अपमानजनक था। यह कोई संयोग नहीं था, बल्कि एक सोची-समझी भाषा की राजनीति थी। आखिर वे कोई साधारण नेता नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री हैं। जब वे “अंडा” कहते हैं, तो वह सिर्फ एक व्यंग्य नहीं, बल्कि उनके भीतर की रणनीतिक चतुराई का प्रतीक बन जाता है।

योगी आदित्यनाथ और प्रतिशोध का मौन

दूसरी ओर, योगी आदित्यनाथ, जो कि सत्तारूढ़ पार्टी के मजबूत स्तंभ हैं, ने इस टिप्पणी पर तुरंत कोई तीखा जवाब नहीं दिया। यह राजनीतिक चातुर्य भी हो सकता है या फिर “शब्दों से नहीं, कार्यों से जवाब देने” की नीति। हालांकि उनके समर्थकों और पार्टी प्रवक्ताओं ने इस पर प्रतिक्रिया ज़रूर दी, किंतु एक मुख्यमंत्री से इस प्रकार की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया ना देना, एक अलग ही राजनीतिक सन्देश देता है।

आप को यह भी पसंद आ सकता है  परिवार की तलाश में निकले मोदी.... 
राजनीतिक भाषा का हास्य और ह्रास

भारत में राजनीति अब भाषाई गरिमा से अधिक “वन-लाइनर्स” और “वायरल” क्षणों की प्रतियोगिता बनती जा रही है। कोई किसी को “मौसमी मेंढ़क” कहता है, कोई “जलेबी की तरह घुमावदार”, तो अब “अंडा” नया जोक है।

यह चिंतनीय है कि जहां देश बेरोजगारी, महंगाई और किसान आत्महत्याओं से जूझ रहा है, वहां नेताओं का ध्यान शब्दों के छींटाकशी में उलझा है। ट्रांज़िशन वर्ड्स जैसे “इसके बावजूद”, “वास्तव में”, “इससे पहले” आदि यहाँ इस विडंबना को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं।

मीडिया की भूमिका: तवा गरम है, अंडा फोड़ो!

यह भी ध्यान देने योग्य है कि मुख्यधारा की मीडिया ने इस “अंडा-कांड” को बड़े चाव से परोसा। कहीं हेडलाइन बनी, “अखिलेश बोले: योगी हैं अंडा”, तो कहीं डिबेट हुई “क्या अंडा नया राजनीतिक हथियार है?” मीडिया भी जानती है कि विवाद बिकता है, और अंडा हो या आलू, राजनीति में बिकने की क्षमता होनी चाहिए।

भविष्य की राजनीति: मुद्दों से मूर्खता तक

अगर आज हम नेताओं की भाषा को सिर पर बैठाकर ताली बजा रहे हैं, तो कल वही नेता विकास के मुद्दों को भूलकर केवल शब्दों की तलवारें चलाएँगे। इस कारण, इस प्रकार, अंततः — इन ट्रांज़िशन वर्ड्स से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह भाषा राजनीति को नहीं, जनता को नीचे गिरा रही है।

आप को यह भी पसंद आ सकता है  कैसा प्यार…प्रेमी से शादीशुदा महिला ने की कुछ उल्टी डिमांड, नहीं कर सका पूरी, तो बेरहम प्रेमिका ने ऐसी हरकत कर दी…

अखिलेश यादव: एक बुद्धिमान व्यंग्यकार या गंभीर रणनीतिकार?

यह भी संभव है कि अखिलेश यादव जानबूझकर ऐसा कहकर खुद को युवा मतदाताओं के बीच प्रासंगिक बनाना चाहते हों। सोशल मीडिया में “मीम” संस्कृति के युग में यदि कोई नेता ट्रेंड करता है, तो वह चुनावी लाभ में बदल सकता है। “अंडा” कहकर वे एक साथ योगी की छवि पर चोट करते हैं और खुद को “बोल्ड” नेता साबित करने की कोशिश करते हैं।

समाज को क्या संदेश?

यह सबसे बड़ा सवाल है। जब समाज के प्रतिनिधि इस स्तर की भाषा का प्रयोग करते हैं, तो यह समाज को भी उसी दिशा में प्रेरित करता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, एक असंवेदनशील राजनीतिक भाषा की हवा बहने लगती है।

क्या हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी अपने मताधिकार का उपयोग “अंडा” और “प्याज” जैसे शब्दों के आधार पर करे? या फिर हम मुद्दों, नीतियों और योजनाओं पर आधारित राजनीति को प्राथमिकता दें?

लोकतंत्र का भविष्य शब्दों पर टिका है

लोकतंत्र की आत्मा उसके शब्दों में बसती है। यदि नेता शब्दों से खेलेंगे, तो विचारों की हत्या सुनिश्चित है। अखिलेश यादव का “अंडा” कह देना एक मजाक से अधिक है; यह हमारे राजनीतिक संवाद की दिशा और दशा पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है।

हमें ज़रूरत है कि हम अपने नेताओं से भाषा में गरिमा और व्यवहार में जिम्मेदारी की मांग करें। क्योंकि यदि “अंडा” राजनीति का नया प्रतीक बन गया, तो “लोकतंत्र” का भविष्य “अंडे के छिलके” पर खड़ा रहेगा—जो कभी भी टूट सकता है।

160 पाठकों ने अब तक पढा
samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

Tags

samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close
Close