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मेहमान लेखक

जब शासक जनता की  तकलीफों से बेखबर होते हैं तो …. ?

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केवल कृष्ण पनगोत्रा

देशों पर संकट आते भी हैं और जाते भी हैं. संकट की समझ और जिम्मेदारी के बगैर संकट का समाधान भी नहीं होता. मगर जब संकट की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता तो फिर समझ आने लगता है कि संकट का असली जिम्मेदार कौन है. जरा इतिहास की परतें उतार कर देखें. 18वीं सदी में फ्रांस की जनता को तब समझ में आया जब भूखी जनता से रानी मेरी अंतवानेत ने कहा कि उन्हें भूख लगी है, तो केक क्यों नहीं खा लेते. यह कहानी झूठी हो सकती है लेकिन इसका उद्देश यह समझाना है कि जब शासक एवं सरकारें आम जनता की बुनियादी तकलीफों से बेखबर होती हैं तो क्या होता है! 18 अप्रैल को एजेंसी के हवाले से अखबारों में खबर प्रकाशित हुई है कि श्रीलंका में राजपक्षे के खिलाफ सिंहल-तमिल एक साथ हो गए हैं. यानि एक दूसरे के कट्टर विरोधी तमिलों और सिंहलों ने आर्थिक संकट को लेकर राजपक्षे सरकार के खिलाफ एकजुटता दिखाई है. इस बीच सेनाओं ने भी साफ कर दिया है कि देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के दमन के लिए वह कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी. कहने का आशय यह है कि जब शासक अपनी आलोचना सुनने के बजाए असहिष्णु और दमनकारी हो जाता है तो आम आवाम भी धर्म-जाति की दीवारों को फांद कर शासक के खिलाफ एकजुट हो जाता है.

मुझे नहीं पता कि भारत में कितने लोग श्रीलंका के आर्थिक संकट को समझते होंगे. फिलहाल तो न लोग समझना चाहते हैं और न ही सरकार ईमानदारी से समझाना चाहती है और जो समझाया जा रहा है उसका मकसद यह लग रहा है कि भारत में मुफ्त में बिजली-पानी और दूसरी सुविधाएं देने की राजनीति भारत का हाल भी श्रीलंका जैसा कर सकती है. यह कहीं भी नहीं समझाया जा रहा कि जिन आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका में संंकट पैदा हुआ है भारत की आर्थिक नीतियां भी लगभग उसी किताब का अनुसरण कर रही हैं.

बेशक कुछ गैर सरकारी बौद्धिक हलके ठीक-ठीक समझा तो रहे हैं मगर नफरती वातावरण के नगाड़खाने में छोटी सी तूतड़ी की अवाज कौन सुनता है!

हमें यह समझना होगा कि तीन साल पहले जिस व्यक्ति को श्रीलंका की जनता ने भारी बहुमत से राष्ट्रपति पद पर बिठाया था उसी के खिलाफ आज जनता सड़कों पर हैं. तब तो गोटाब्या राजपक्षे श्रीलंका को सिंगापुर बनाने के हसीन सपने दिखा रहे थे. तब राजपक्षे सिंहली और बौद्धों के ध्रुवीकरण से वोट हासिल कर रहे थे. धर्म की नफरती राजनीति और विकास के बनावटी सपनों ने राजपक्षे को भारी जीत दिला दी थी. मगर उस नफरती राजनीति का जनाज़ा इतनी जल्दी निकल जाएगा, शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा. उस समय श्रीलंका की जनता इस बात पर फूल रही होगी कि धर्म के गौरव की बात करने वाला ही उनका असली हमदर्द है.

सादगी से समझें तो श्रीलंका में मुद्रा स्फीति 17.5 प्रतिशत तक बढ़ गई . देश के कई हिस्सों में 10-13 घंटे बिजली काटी जा रही है. श्रीलंका में एक किलो चावल 300 से 500 रुपये हो चुका है. महंगाई इतनी बढ़ गई है कि श्रीलंका की आधी आबादी एक वक्त का खाना भी नहीं ख़रीद पा रही.  एक परिवार चलाने के लिए 20-25 हजार प्रति माह की आमदनी कम पड़ रही है.

5 अप्रैल को श्रीलंका से भारतीय मीडिया चैनल रिपोर्ट कर रहे थे कि-

श्रीलंका में आर्थिक संकट के बाद हाहाकार है. इमरजेंसी-कर्फ्यू के बाद भी लोग सड़कों पर हैं. प्रदर्शन, नारेबाजी, झड़प के बाद कई जगह पर आंसू गैस के गोले दागे गए. हर सामान के दाम आसमान छू रहे हैं. आर्थिक संकट का असर सरकार पर भी पड़ा है. सभी मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है. अब पीएम की कुर्सी भी खतरे में है. विपक्ष के साथ बैठक के बाद सर्वदलीय सरकार पर सहमति बनती दिख रही है. श्रीलंका की स्थिति हर दिन बिगड़ रही है, भूख और प्यास से परेशान जनता सड़कों पर आंदोलन कर रही है.

अब श्रीलंका के आर्थिक संकट और समस्याओं को भारत के संदर्भ में देखना जरूरी है. भारत में भी पैट्रोल-डीजल की निरंतर बढ़ती कीमत के चलते जरूरी वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं. श्रीलंका में चावल 300-500 रू. प्रति किलो है तो भारत में नींबू 300-400 मिला है. भारत में मंहगाई और बेरोजगारी एक ज्वलंत समस्या है. फर्क सिर्फ इतना है कि भारत की जनता अभी सड़कों पर नहीं है. भारत श्रीलंका से बड़ी अर्थ व्यवस्था है लेकिन सांप्रदायिक नफ़रत और आर्थिक नीतियों का आलम श्रीलंका से भिन्न नहीं.

श्रीलंका संकट के दृष्टिगत यहां 5 अप्रैल(2022) के दिन NDTV के रविश कुमार साहिब के प्राइम टाइम की बानगी को उद्धरित करना जरूरी है. रविश बता रहे थे,”पड़ोसी का घर जल रहा है. इसका मतलब यह नहीं कि अपने घर में आग लगाकर हम तापना शुरू कर दें. इसका मतलब है कि हम थोड़ा और सतर्क हो जाएं कि उस तरह की आग कहीं हमारे घर तक न आ जाए. जब तक सरकारें सुधार के नाम पर सब कुछ बेच रही होती हैं तब तक जनता का ध्यान उधर नहीं जाता लेकिन जब उसके नतीजे में जनता का घर जला तो वही जनता तो राजपक्षे के समर्थन में नारे लगाती है, उन पर और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ नारे लगा रही है कि देश को मत बेचो. लेकिन जो बिकना था वो तो बिक चुका है. परिवारवाद को कारण बताया जा रहा है लेकिन जिन आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका की तबाही आई है उसमें सभी सरकारों और दलों का हाथ है. आज की वैश्विक आर्थिक नीतियां लगता है कि एक ही किताब से हर जगह लागू की जाती हैं. जब तक अच्छा लगता है सौ दावेदार होते हैं, जैसे ही संकट आता है कोई जिम्मेदार नज़र नहीं आता है. क्या श्रीलंका के संकट के बहाने हम उन आर्थिक नीतियों की तरफ लौटने का साहस रखते हैं जिनके कदमों में हमने अपने सारे सपने गिरवी रख दिए हैं.”

भारत में आम उपभोग की वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, बेरोजगारी, महंगी सेवाएं, महंगी यात्रा आदि के नतीजे क्या होंगे? यह सवाल अब तक एक पहेली की तरह ही है जिसे हाल ही में श्रीलंका के आर्थिक संकट के संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं.

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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