कानपुर अग्निकांड ने न केवल करोड़ों की संपत्ति को खाक में बदला, बल्कि सैकड़ों परिवारों के जीवनभर के सपनों को भी छीन लिया। यह हादसा व्यापारियों की बेबसी और प्रशासनिक लापरवाही की तस्वीर है।
चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
कानपुर: बीते सोमवार को जो आग कानपुर की दुकानों में लगी, उसने महज सामान नहीं जलाया—उसने परिवारों की रोटियां, बुजुर्गों की उम्मीदें, बच्चों का भविष्य और मेहनतकश व्यापारियों का आत्मविश्वास भी राख कर दिया।
जब आंखों के सामने जल उठे सपने
सोचिए एक पल के लिए कि आपने अपने जीवन के 30-40 साल एक दुकान को खड़ा करने में लगा दिए हों। बच्चों की पढ़ाई, घर का खर्च, बुजुर्गों की दवा और त्योहारों की तैयारी—सब कुछ उसी दुकान से चलता हो। और फिर एक घंटे में सब कुछ खाक हो जाए। व्यापारी दिनेश गुप्ता हों या सुशील राठौर—हर चेहरा बस यही सवाल कर रहा था: अब क्या करें?
व्यापार नहीं, पहचान जली है
छोटी-छोटी दुकानों में भले ही रुई, तेल, सौंफ और मूंगफली बिकती हो, लेकिन इन्हीं के सहारे कुछ लोग आत्मनिर्भर थे। उनके लिए ये दुकानें सिर्फ व्यापार का जरिया नहीं थीं, बल्कि आत्मसम्मान की पहचान थीं। और जब आग ने इन्हें निगल लिया, तो उनके भीतर भी कुछ हमेशा के लिए टूट गया।
प्रशासन की तैयारी, भीड़ की लापरवाही
दमकल कर्मियों ने जान जोखिम में डालकर आग बुझाई, लेकिन क्या यह सवाल नहीं उठता कि ऐसी ज्वलनशील सामग्री रखने वाले बाजारों के लिए कोई पूर्व तैयारी क्यों नहीं होती? क्यों आसपास पानी के बड़े स्रोत नहीं होते? और क्यों तमाशबीन भीड़, वीडियो बनाने की बजाय मदद करने की सोच नहीं रखती?
हाथ भी साफ कर गए कुछ लोग
सबसे दुखद पहलू यह था कि कुछ लोग इस त्रासदी को भी अवसर में बदल गए। जब व्यापारी अपना माल सड़क पर रख रहे थे, कुछ लोग नजरें बचाकर चुपचाप सामान उठा ले गए। यह समाज की नैतिकता पर भी सवाल खड़े करता है।
राख में दबे सवाल
इस अग्निकांड के बाद केवल यह तय करना पर्याप्त नहीं कि नुकसान कितना हुआ। जरूरी यह है कि ऐसे हादसे दोबारा न हों, इसकी तैयारी हो। दमकल विभाग की क्षमता बढ़े, बाजारों में सुरक्षा उपाय हों और सबसे जरूरी—हम सब संवेदनशील बनें।
क्योंकि अंत में, दुकानें दोबारा बन जाएंगी, लेकिन जो आंखें सपनों के साथ जली हैं, उन्हें शायद कोई मरहम न मिल सके।