मीडिया वालों, कुंभ को कुंभ ही रहने दें, तमाशा न बनाएं 

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मोहन द्विवेदी

कुंभ मेला भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का एक ऐसा पर्व है, जो न केवल धर्म के प्रति आस्था को प्रकट करता है, बल्कि यह विश्व को भारतीय परंपराओं की शक्ति और सनातन धर्म की सनातनता से परिचित कराता है। हर 12 वर्ष पर आयोजित होने वाला यह मेला, हिंदू धर्म की जीवंतता और गूढ़ तत्वज्ञान का द्योतक है, जो केवल स्नान तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक चेतना और समर्पण का महापर्व भी है।

कुंभ: एक पौराणिक, ऐतिहासिक और धार्मिक यात्रा

कुंभ पर्व का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश की कुछ बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में गिरी थीं, जिससे इन स्थानों पर कुंभ महापर्व की परंपरा आरंभ हुई। यह आयोजन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामूहिक चेतना का जागरण भी है। स्कंद पुराण, विष्णु पुराण और महाभारत में भी कुंभ की महत्ता का उल्लेख किया गया है।

इतिहासकारों के अनुसार, कुंभ मेला सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराना माना जाता है। सम्राट हर्षवर्धन के समय चीनी यात्री ह्वेनसांग ने प्रयागराज में कुंभ मेले का विस्तृत वर्णन किया था। समय के साथ इस मेले का स्वरूप बदला, किंतु इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा अपरिवर्तित बनी रही।

कुंभ का दार्शनिक एवं सामाजिक पक्ष

कुंभ मेला भारतीय समाज की उस शक्ति का प्रतीक है, जहां हर जाति, संप्रदाय, मत और पंथ के लोग समान भाव से स्नान करते हैं। यहां आकर राजा-रंक, अमीर-गरीब, गृहस्थ-सन्यासी एक हो जाते हैं। कुंभ केवल स्नान का पर्व नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, आत्मदर्शन और आत्मसमर्पण का अवसर भी है।

संतों, महात्माओं और विद्वानों की उपस्थिति इस पर्व को और भी गरिमा प्रदान करती है। यहां विभिन्न अखाड़ों, संप्रदायों और मतावलंबियों का संगम होता है। संत-महात्माओं का प्रवचन समाज में नैतिकता, धर्म और सेवा की भावना को प्रोत्साहित करता है। कुंभ पर्व का एक प्रमुख अनुष्ठान “शाही स्नान” है, जिसमें विभिन्न अखाड़ों के संत और साधु सामूहिक स्नान कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति को जागृत करते हैं।

मीडिया का दृष्टिकोण: कुंभ की छवि के साथ खिलवाड़

आज मीडिया टीआरपी की दौड़ में केवल सनसनीखेज खबरों को प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति अपना चुका है। कुंभ जैसे भव्य और दिव्य आयोजन को वास्तविकता से दूर रखकर, उसकी आड़ में केवल मनोरंजन के नाम पर बाजारवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।

मीडिया को कुंभ के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक महत्व को उजागर करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय कुछ विचित्र व्यक्तित्वों और घटनाओं को प्रमुखता दी जाती है। “आईआईटियन बाबा,” “कबूतर बाबा,” “कांटों पर सोने वाले बाबा” जैसे नाम गढ़कर कुंभ के मूल स्वरूप को हास्यास्पद बनाने की कोशिश होती है।

इसके विपरीत, मीडिया को इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि कुंभ में लाखों श्रद्धालु क्यों उमड़ते हैं? वे यहां केवल एक परंपरा निभाने नहीं आते, बल्कि यह उनके आत्मबोध और आत्मशुद्धि का माध्यम होता है। वे यहां आकर अपने जीवन के पापों का प्रायश्चित करते हैं और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करते हैं।

आस्था और विज्ञान का अद्भुत संगम

कुंभ महापर्व केवल धर्म और आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि खगोलीय गणनाओं और प्राकृतिक ऊर्जा का अद्भुत संगम भी है। ग्रहों की विशेष स्थिति इस पर्व के महत्व को और बढ़ा देती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, कुंभ के दौरान जल की संरचना में विशेष परिवर्तन होते हैं, जो उसे औषधीय गुण प्रदान करते हैं। यह शोध दर्शाते हैं कि कुंभ के दौरान गंगा जल में बैक्टीरिया और अन्य हानिकारक तत्वों की मात्रा घट जाती है, जिससे स्नान का वैज्ञानिक आधार भी सिद्ध होता है।

कुंभ: सनातन धर्म की अमूल्य धरोहर

आज जब पूरी दुनिया भारतीय संस्कृति, योग, अध्यात्म और वेदांत की ओर आकर्षित हो रही है, तब कुंभ मेला इस सनातनी परंपरा का जीवंत प्रमाण है। इसे केवल एक धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित रखना उचित नहीं होगा। यह भारत की सहिष्णुता, एकता और आध्यात्मिकता का प्रमाण है।

मीडिया को चाहिए कि वह कुंभ के वास्तविक स्वरूप को उजागर करे। यह केवल एक मेले का आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आध्यात्मिकता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक धरोहर को संजोने वाला पर्व है। कुंभ पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, आत्मविश्लेषण और आत्मसुधार का अवसर प्रदान करता है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि मीडिया अपने दायित्व को समझे और कुंभ जैसे पवित्र आयोजन को सनसनीखेज खबरों से बचाए। यह आयोजन हमारी आस्था, हमारी संस्कृति और हमारी परंपराओं का अमूल्य खजाना है। इसे एक तमाशा न बनाया जाए, बल्कि इसके वास्तविक संदेश को जनमानस तक पहुंचाया जाए।

कुंभ केवल जल में स्नान करने का पर्व नहीं, बल्कि यह आत्मशुद्धि, आत्मबोध और धर्म की वास्तविक भावना को समझने का अवसर है। इसे मात्र खबरों की सनसनी से परे रखते हुए, इसके आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व को समझना और संप्रेषित करना ही सच्ची पत्रकारिता होगी

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