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संपादकीय

रावण अभी जिंदा है दोस्तों….राम की नगरी सिसक रही, कृष्ण की मथुरा भी बिलखती रहती हैं और आप कह रहे हैं रावण मर गया!!

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अनिल अनूप

सदियों से रावण का अंत हो रहा है। त्रेता युग से चला आ रहा यह सिलसिला हर साल दशहरे के दिन नए उत्साह के साथ दोहराया जाता है। भारत और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। इसे धर्म पर अधर्म की, अच्छाई पर बुराई की विजय का प्रतीक माना जाता है। ‘विजयादशमी’ पर्व के साथ ये जश्न शुरू होते हैं और दीपावली तक चलते हैं। इस दौरान एक तसल्ली का भाव होता है कि हमने बुराई, अधर्म, अत्याचार और राक्षसत्व का दहन कर दिया, उसका अस्तित्व मिटा दिया।

लेकिन यह सोच कहीं न कहीं एक बाहरी और दिखावटी प्रक्रिया बनकर रह गई है। क्या रावण का पुतला जलाने से सच में बुराई का अंत होता है? या फिर यह केवल एक प्रतीकात्मक उत्सव है, जो हमारी भीतरी इच्छाओं और राक्षसी प्रवृत्तियों से मुंह मोड़ने का बहाना बन चुका है?

दरअसल, रावण केवल एक पात्र नहीं है, वह हमारे भीतर की तमाम बुरी इच्छाओं और राक्षसत्व का प्रतीक है। त्रेता युग में उसने साधु का वेश धारण कर माता सीता का अपहरण किया था, लेकिन उसकी मर्यादाओं ने उसे सीता के पवित्र स्वरूप को छूने तक नहीं दिया। आज, हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ अपहरण और बलात्कार एक आम बात हो गई है। तीन-चार साल की मासूम बच्चियों तक को दरिंदगी का शिकार बनाया जा रहा है, और यह बर्बरता अक्सर उनकी हत्या के साथ समाप्त होती है। ऐसे कृत्य करने वाले दरिंदों के भीतर कौन सा रावण बसा है? रावण तो ऐसा नहीं था।

रावण एक प्रकांड पंडित, वेद-पुराणों का ज्ञाता, महापराक्रमी योद्धा और महादेव का अनन्य भक्त था। वह एक त्रिकालदर्शी विद्वान था, लेकिन फिर भी उसे राक्षस और असुर माना गया। उसके परिवारिक पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखने पर भी यह सवाल उठता है कि क्या उसे केवल उसकी जातीय पहचान की वजह से राक्षस कहा गया? लेकिन आज, हमारे सरोकार इस ऐतिहासिक पहलू से नहीं बल्कि उस ‘रावणत्व’ से है जो आज भी विभिन्न रूपों में जीवित है—आतंकवाद, जातिवाद, धर्म के नाम पर हिंसा, नफरत से भरी राजनीति, और सांप्रदायिकता।

हर साल हम रावण के पुतले जलाते हैं, परंतु क्या यह प्रतीकात्मक क्रिया वास्तव में उस ‘रावणत्व’ का अंत कर पा रही है जो हमारे भीतर और समाज में फल-फूल रहा है? आज, हम जिस तरह का नफरती वातावरण देख रहे हैं, वह केवल एक बाहरी रावण के अंत से खत्म नहीं होगा। यह लड़ाई हमारे भीतर के राक्षसों से है, जो हर रोज़ हमें मानवता से दूर कर रहे हैं।

बांग्लादेश में हाल ही की हिंसक घटनाओं को देखिए, जहाँ कट्टरपंथी उकसावे के चलते कथित मुसलमानों की भीड़ हिंदुओं की हत्या कर रही है, उनके पूजास्थलों को अपवित्र कर रही है। यह रावणत्व ही तो है, जो धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक उन्माद के रूप में पनप रहा है। इसी के समानांतर, भारत में भी हिंदू-मुसलमान के आधार पर राजनीति की जा रही है। धर्म और जाति के नाम पर बंटवारे की सियासत हमें किस ओर ले जाएगी? क्या इससे हम राम-राज्य की ओर बढ़ रहे हैं, या फिर विभाजन और अराजकता की ओर?

आज, जब रूस और यूक्रेन के बीच लगभग ढाई साल से युद्ध चल रहा है, जब इजरायल और गाजा, हमास, हिजबुल्लाह के बीच बमबारी और मिसाइले चल रही हैं, तो यह रावणत्व का ही विकराल रूप दिखता है। हजारों लोगों की मौत हो चुकी है, असंख्य लोग विस्थापित हो चुके हैं, और यह वीभत्सता महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध से भी कहीं अधिक भयावह प्रतीत होती है। इन युद्धों की जड़ में भी वही राक्षसी प्रवृत्तियाँ हैं, जो हमारे समाजों और सभ्यताओं को दीमक की तरह खा रही हैं।

भगवान राम ने कभी भी युद्ध की कल्पना नहीं की थी। उन्होंने रावण से बार-बार दूत भेजकर संवाद किया, उसे समझाने की कोशिश की कि वह सीता को सम्मान सहित लौटा दे। लेकिन रावण के भीतर का राक्षस उसे समझौता नहीं करने दे रहा था, और अंतत: उसका विनाश निश्चित हो गया। आज भी, यह विचारणीय है कि क्या हम रावण को हर साल जलाने के बाद सच में बुराई को हरा पा रहे हैं, या फिर वह केवल प्रतीकात्मक रूप से जलता है जबकि हमारे भीतर का राक्षस जस का तस बना रहता है?

जरूरत इस बात की है कि हम केवल बाहरी रावण का दहन न करें, बल्कि अपने भीतर के रावणत्व को समाप्त करने का संकल्प लें। यह तभी संभव होगा जब समाज का हर नागरिक भगवान राम के आदर्शों को अपनाए, उनके गुणों को अपने जीवन में उतारे। सच्चा राम-राज्य तभी स्थापित हो सकता है जब हम मानवीय मूल्यों, सहिष्णुता, करुणा और दया को अपने जीवन का आधार बनाएं। रावण का अंत एक बाहरी पर्व नहीं, बल्कि हमारे भीतर के अंधकार को खत्म करने का प्रतीक बनना चाहिए। तभी यह पर्व अपनी वास्तविक सार्थकता प्राप्त करेगा।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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