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समाजवादी पार्टी में लोकतंत्र या परिवारवाद? एक गंभीर विश्लेषण

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मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट

समाजवादी पार्टी (सपा) का राजनीतिक परिदृश्य भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, खासकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में। यह पार्टी 1992 में मुलायम सिंह यादव द्वारा स्थापित की गई थी, जिसका मूल उद्देश्य समाजवाद के सिद्धांतों पर आधारित राजनीति को बढ़ावा देना था। लेकिन आज की तारीख में, समाजवादी पार्टी को लेकर जो सबसे अधिक आलोचना होती है, वह है इसके भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव और यादव परिवार का पार्टी पर व्यापक नियंत्रण। इस संदर्भ में यह कहना गलत नहीं होगा कि समाजवादी पार्टी आज एक परिवार-केंद्रित दल बनकर रह गई है।

परिवारवाद का प्रभुत्व और इसकी शुरुआत:

समाजवादी पार्टी में परिवारवाद की जड़ें मुलायम सिंह यादव के समय से ही देखी जा सकती हैं, लेकिन यह विशेष रूप से स्पष्ट तब हुआ जब उनके बेटे अखिलेश यादव को पार्टी में प्रमुखता दी गई। पार्टी में लोकतंत्र को ठोस रूप देने के बजाय, मुलायम सिंह यादव ने अपने परिवार के सदस्यों को प्रमुख पदों पर बैठाकर सत्ता के केंद्रीकरण की प्रक्रिया को तेज किया। परिवार के अन्य सदस्य, जैसे शिवपाल यादव और डिंपल यादव, भी पार्टी के महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल रहे हैं। यह स्थिति पार्टी की आंतरिक संरचना में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है।

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आंतरिक लोकतंत्र का अभाव

एक स्वस्थ राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र होना आवश्यक है, जहां नेतृत्व का चयन पार्टी कार्यकर्ताओं के निर्णय से होता है। लेकिन समाजवादी पार्टी में यह प्रवृत्ति कम दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर, 2012 में जब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया, तब यह निर्णय किसी आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत नहीं बल्कि पारिवारिक सहमति और मुलायम सिंह यादव की इच्छा के तहत हुआ। यह एक स्पष्ट संकेत था कि पार्टी के भीतर पद और प्रतिष्ठा का बंटवारा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से अधिक पारिवारिक नियंत्रण पर निर्भर करता है।

पार्टी के भीतर असहमति और विद्रोह

समाजवादी पार्टी में कई बार विद्रोह की स्थिति भी देखी गई है, लेकिन हर बार उन विद्रोहों को कुचल दिया गया। उदाहरण के तौर पर, शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच का टकराव पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी को उजागर करता है। जब अखिलेश यादव ने पार्टी की कमान संभाली, तब पार्टी के भीतर असहमति को सुना नहीं गया। शिवपाल यादव का पार्टी से बाहर निकलना और समाजवादी पार्टी का विभाजन होना इस बात का प्रमाण है कि परिवारवाद पार्टी के ढांचे को कमजोर कर रहा है।

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प्रभावी नेता का अभाव और पार्टी की गिरावट

समाजवादी पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पार्टी का कोई ऐसा नेता नहीं है जो व्यापक जनाधार के साथ लोकतांत्रिक तरीकों से पार्टी को दिशा दे सके। अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठते रहते हैं। समाजवादी पार्टी का लगातार गिरता हुआ जनाधार, विशेष रूप से 2017 और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में, यह दर्शाता है कि पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र और सशक्त नेतृत्व की कमी है।

परिवारवाद के परिणाम

समाजवादी पार्टी में परिवारवाद का प्रभुत्व कई दुष्परिणाम पैदा कर रहा है।

कार्यकर्ताओं का हतोत्साहित होना

जब पार्टी के प्रमुख पद और निर्णय लेने के अधिकार केवल परिवार के लोगों तक सीमित हो जाते हैं, तो आम कार्यकर्ता खुद को पार्टी से अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। इससे जमीनी स्तर पर पार्टी की शक्ति कमजोर होती है।

जनता का मोहभंग 

जनता को एक ऐसा दल चाहिए जो उनके मुद्दों को लोकतांत्रिक तरीके से उठाए, लेकिन समाजवादी पार्टी में परिवारवाद के चलते आम जनता की आकांक्षाओं को जगह नहीं मिलती। इससे जनता का विश्वास कमजोर होता है।

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राजनीतिक भविष्य पर संकट

अगर समाजवादी पार्टी परिवारवाद से उबरकर आंतरिक लोकतंत्र को स्थापित नहीं करती, तो इसका भविष्य उत्तर प्रदेश की राजनीति में और कमजोर हो सकता है।

समाजवादी पार्टी का लोकतांत्रिक ढांचा उस रूप में नहीं है जैसा कि एक राजनीतिक दल में होना चाहिए। पार्टी में परिवार का प्रभुत्व और आंतरिक लोकतंत्र का अभाव इस पर गंभीर सवाल उठाते हैं।

अगर समाजवादी पार्टी को अपने अस्तित्व को बनाए रखना है और जनता के बीच फिर से अपनी साख को मजबूत करना है, तो उसे परिवारवाद से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा। अन्यथा, पार्टी का जनाधार और उसका प्रभाव लगातार घटता जाएगा, और इसे “परिवार का दल” कहकर हाशिए पर धकेल दिया जाएगा।

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हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं

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