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विचार

दलित समाज में जातिवाद और आरक्षण : एक कठोर सत्य

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बल्लभ लखेश्री

लगभग 30 दशकों बाद देश के कौने-कौने से सैकड़ो याचिकाओं पर लबीं ज़िरह और जद्दोजहद के पश्चात् सुप्रीम कोर्ट के केवल एक दो जजों ने नहीं बल्कि जजों की टीम ने किसी जो कि किसी प्रकार का निर्देश जारी न करके देश की केन्द्रीय एवं प्रांतीय व्यवस्था पालिका को सुझाव मात्र दिया कि देश के अलग हिस्सों में दलित समाज की सैकड़ों जातियों को जन संख्या के अनुपात में आरक्षण पर यदि विचार करें जो मुख्य धारा से कोसों दूर है,तो किसी प्रकार की संवैधानिक अडचन के दायरे में नहीं है।

यह कटु सत्य है ।आज नहीं तो कल इस व्यवस्था को करना ही होगा ।देश के लाखों लोग कब तक कीड़े मकोड़ों की जिंदगी जीते रहेंगे ,कब तक झूठन पर गुजारा करेंगे कितनी-कितनी पिंढियां फुट पाथ पर गुजरे गी,कब तक आएं दिन सिवरेज से लाशों के ढेर निकलें गे।अनेक सहारिया जाति के लोग आज भी घास की रोटी खाकर के अपना जीवन व्यतीत करते हैं। 

हम चाहिए अपने मतलब में कितने अंधे क्यों नहीं हो जाएंगे लेकिन कुछ तो  करना पड़ेगा सत्य से कब तक भागते रहेंगे। कुछ व्हाट्सएप वीर और नए नेता कहते हैं कि आरक्षण खत्म हो रहा है।संविधान को बदलला जा रहा है। जब आरक्षण निजीकरण से खत्म हो रहा है जिसका तो राष्ट्र व्यापी विरोध क्यों नहीं हुआ। 

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अरे बंटवारा से आरक्षण घटेगा नहीं आरक्षण बढ़ेगा, आरक्षण का दायरा बढ़ेगा मानवी और प्राकृतिक अधिकारों की पहल बढ़ेगा।। 

जब ओबीसी आरक्षण,गुजर आरक्षण, विप्र  आरक्षण, निर्धनों को आरक्षण । अलग-अलग राज्य में आरक्षण की अलग-अलग व्यवस्था है।

मतलब  तब संविधान पर खतरा नहीं आया , सुप्रीम कोर्ट का मात्र एक विचार आया है। उसमें दलित वर्ग का 00. 0% भी आरक्षण खत्म नहीं हो रहा है। उस पर कुछ राजनीतिक रोटी सेंकने वाले या अपने भाई भतीजे और जातीय स्वार्थ के मकड़जाल में फंसे लोगों को संविधान पर खतरा नजर आने लगा। जैसे संविधान और आरक्षण कोई फिक्स जागीर  है ।इसे एक समय खत्म होना है।तो उन अन्तिम छोर के लोगों तक भी पहुंचा जाय जिनकी उन्होंने आज तलक कल्पना भी नहीं की हो । बजाय हम लोगों को गुमराह करने में लगे हैं जैसे संविधान संशोधन या आरक्षण व्यवस्था पर पहली बार ही विचार आया है।

एक और कटु सत्य कहने की गुस्ताखी कर रहा हूं यह बात किसी जाति विशेष या क्षेत्र विशेष की न होकर  पूरे राष्ट्र के लिए लागू होती है कि दलित वर्ग की  जातियों में जितना बंटवारा/ विभाजन /फुट है/वो अभी से नहीं है बल्कि जंग जाहिर है इस के लिए न्याय व्यवस्था को दोषी ठहराना  ही बेईमानी लगती हैं।  हां राजनीतिक की चाल,उपर के दलितों की स्वार्थ और सकिर्णता की मार से निचला तबका तार तार हो गया है। 

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अच्छा है उन्हें अपने हाल पर छोड़ दें कोई एकता की दुहाई देकर उनके जख्मों पर नमक न छिड़के । दलितों की निम्न जातियों को मात्र भीड़ के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सच्चाई यह है कि बड़े भाई उन्हें एक पंचायत का मेम्बर तक बनने नहीं देता है। और दलितों में ऊंची नीच और जातिय भेदभाव सर चढ़कर कर बोलता है। अगर स्वर्ण की भाती एससी में भी एक आध को छोड दिया जाय तो निचले तबके की काबिलियत का सम्मान दूर की कोड़ी,उसका बात सुनना तो दूर उसे देखना तक पसंद नहीं करते,क्या यही है एससी समाज की एकता ? 

दलितों में जातियता, ऊंच-नीच ,अलग-अलग खेमे , उनके शिक्षण संस्थान, मोक्षधाम, सार्वजनिक भवन, रोटी बेटी व्यवहार, मोहल्ले बस्तियां, पानी खाना जाजम, संगठन, उनकी दुख पीर संघर्ष सब कुछ अलगहै तो केवल वोट बटोरने में और आरक्षण की दलील देने में केवल एकता का ढोंग क्यों किया जाय।

लेखक के विचार निजी हैं और उससे समाचार दर्पण संपादकीय विभाग के किसी भी सदस्यों का सहमत होना या ना होना महज संयोग है। संपादक

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