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November 2, 2024 3:58 am

इन सिसकियों में उतना ही दर्द है जितना खौफ ; इज्जत जाने का खौफ मौत से कहीं बड़ा है

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अनिल अनूप के साथ दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

कोई इसे जमीन पर जन्नत कहता है… तो कोई सरताज-ए-हिंद… किसी को मीलों पसरी बर्फ पसंद है… तो कोई डल झील के नीलम-रंगी पानी पर शिकारे-सा ठहराव चाहता है। ये वो कश्मीर है, जो न जाने कितने ख्वाबों में बसा है, लेकिन हर ख्वाब कश्मीर-सा खूबसूरत नहीं! यहां देवदार के पेड़ों की सरसराहट में उन मांओं की चीखें दफन हैं, जिनके बच्चे रातोंरात लापता हो गए। झेलम के चमकीले पानी में जाने कितनी ही खिलखिलाहटों का खून मिला हुआ है। यहां जमीन के हर रकबे में जुल्म और खौफ की कहानियां उगती हैं।

खौफनाक सच के धागों में पिरोई हुई ऐसी ही एक कहानी बिलाल की है, जिनके घर में आतंकी घुसे, और बंदूक की नोंक पर छोटे भाई को लेकर चले गए। डॉक्टर बनने के सपने बुनता वो बच्चा अब जेल में है। मां गहरे डिप्रेशन में और पिता की पीठ वक्त से पहले कमान बन चुकी।

बिलाल कहते हैं- लोग भले ही कश्मीर को जन्नत कहें, लेकिन हमारे लिए ये जहन्नुम है। जन्नत वो होती है, जहां सुकून हो, मोहब्बत हो। यहां तो घर पर दस्तक होते ही लगता है कि आतंकी तो नहीं लौट आए! ऐसा कहते हुए सोपोर के उस ठंडे-बंद कमरे में भी उनके माथे पर पसीना चमकने लगता है। कई बार वो भरभरा के रो उठते हैं, इतना जोर से कि मुझे वीडियो बंद कर उन्हें तसल्ली देनी पड़ती है।

बिलाल तक पहुंचने का हमारा सफर कई पड़ावों से होकर गुजरा। कई चेहरों से मुलाकात हुई। ज्यादातर सहमे हुए। वहीं कुछ ऐसे, जो कश्मीर को दोबारा जन्नत बनाने का जज्बा लिए हुए। ऐसे ही एक चेहरे ने हमें बिलाल तक पहुंचाने का जिम्मा लिया। एक-एक कदम नाप-जोखकर उठाया गया। भरोसेमंद टैक्सी ड्राइवर को साथ लेकर बड़ी सुबह हम श्रीनगर से निकले। रास्ते में दो और लोकल जानकार साथ जुड़े, जिनका काम सेफ्टी को पक्का करना था। मैंने ट्रैकर ऑन कर रखा था, लेकिन कहीं न कहीं डरा सहमा हुआ था।

जब हमारी कार उत्तरी कश्मीर के सुनसान रास्तों से गुजर रही थी, तभी दक्षिणी हिस्से में एनकाउंटर चल रहा था। डर और उम्मीदों के बीच डूबते-उतरते हम अपनी मंजिल तक पहुंचे।

सेब के बागान के बीचोंबीच खड़े उस घर में बिलाल था। ऊपरी कमरे में हमें अकेला छोड़कर बाकी लोग बाहर चले गए। अब उन्होंने बोलना शुरू किया। पहले अटक-अटककर, फिर भरोसे के साथ। वे याद करते हैं- साल 2019 का अगस्त था, जब आधी रात हमारे दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही कुछ लोग धड़धड़ाते हुए भीतर घुस आए और कुंडी लगा दी। सबके हाथों में बंदूक और चेहरे पर फाड़ खाने वाला भाव।

वे लश्कर के लोग थे, जो कश्मीर को जहन्नुम बनाए हुए हैं। आते ही उन्होंने सबको एक कमरे में इकट्ठा किया। मोबाइल जब्त करके बंद कर दिया। फोन का तार काट दिया। उन्होंने वो सारे इंतजाम किए, जिससे किसी किसी को भी हमारे घर पर किसी हलचल की भनक न लग सके।

एक कमरे में हम सब जमा थे- मां-बाप, हम चार भाई और एक चचेरी बहन। एक मिलिटेंट ने अब्बू की कनपटी पर पिस्टल रख दी और धमकाया कि किसी को उनके आने की भनक न लगे। उसने सीधे कहा- तुममें से किसी का भी मुंह खुला, तो हम पूरे खानदान को खत्म कर देंगे।

अब बारी थी, घर की औरतों की। रोती हुई मां और बहन को उन्होंने किचन में भेज दिया। आधी रात में वे रोटी-चावल और खूब अच्छी तरह से भुना हुआ गोश्त चाहते थे। जब वे खाना पका रही थीं तब मिलिटेंट्स बार-बार धमका रहे थे कि जल्दी देग पकाओ, हमें भूख लगी है। खाना खाकर घर के हरेक कमरे में पसर गए।

हम 7 लोग एक ही कमरे में बंद थे, अपने ही घर में कैदी की तरह। न हाथ हिला सकते थे, न पैर। दरवाजा खोलना मना था। ये जहन्नुम की शुरुआत थी। इसके बाद वे कई बार आए। उनकी नजर हमारे छोटे भाई पर पड़ चुकी थी। 19 साल का मेरा भाई दो ही काम जानता – इबादत और पढ़ाई। वो डॉक्टर बनना चाहता था। 12वीं की परीक्षा देने वाला था, जब उन्होंने एक ‘ऑफर’ दिया- ‘इसे हमारे साथ भेज दो, वरना हम एक-एक को मार देंगे।’

भाई तब 19 साल का था। कोमल हाथों और उससे भी कोमल दिल वाला। वो रोने लगा। उसे तो डॉक्टर बनना था, लेकिन ये लोग उसे आतंकी बना डालेंगे। मां ने मिन्नतें कीं। पिता समेत हम सब भाई पैर पकड़ने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं। भाई को लेकर वे नकाबपोश चले गए। इसके बाद उसकी ट्रेनिंग होने लगी।

जो कान मां की मीठी झिड़कियां सुना करते, वो अब नफरत से सने आतंकी बोल सुनते। जो पांव इबादतगाह की तरफ जाते, अब वो घाटी में आतंकी गतिविधियों की तरफ बढ़ने लगे। उसे लश्कर के सपोर्ट में पोस्टर लगाने का काम दिया गया। जिन हाथों से भाई मरीजों को जिंदगी देने के ख्वाब देखता, उन्हीं हाथों से अब वो आतंक के पोस्टर चिपका रहा था। वो बदलने लगा था। घर लौटता तो पहले की तरह हंसता-बोलता नहीं, बल्कि चुपचाप पड़ा रहता। मां सिर पर हाथ फेरती तो मुंह दबाकर सो जाता।

11 नवंबर, 2019! उस रात घर पर छापा पड़ा। ढेरों पुलिसवालों समेत आला अफसरों ने घर को चारों तरफ से घेर लिया। जिन कमरों में इबादतें और मुहब्बत-भरी बातें गूंजती थीं, वहां पुलिसिया कमांड गूंज रही थी। एक-एक सामान, एक-एक किताब, बिस्तर-चावल के कनस्तर तक सब कुछ खंगाला गया। फिर आया वो सवाल, जिसके न पूछे जाने की हम दुआ कर रहे थे। ‘छोटा भाई कहां है?’ उसे लेकर वे सब चले गए।

बिलाल बताते हैं- ढाई साल हुए- हमने भाई का चेहरा नहीं देखा। उस पर PSA (पब्लिक सेफ्टी एक्ट) लगा है। अम्मी डिप्रेशन में जा चुकी। या तो रोती है, या अस्पताल में रहती है। हरदम हंसने-मजाक करने वाली अम्मी का ब्लड प्रेशर हाई रहता है। रात-बेरात कभी भी डॉक्टर के पास भागना पड़ जाता है। तिस पर मैं उनके साथ नहीं रह सकता!

मैं सवाल करता-सा बिलाल को देखता हूं। वे धीरे-धीरे कहते हैं, ऐसे जैसे सपने में बोल रहे हों- अम्मी को डर है कि मैं घर पर रहूंगा तो मिलिटेंट मुझे भी पकड़कर ले जाएंगे। अब मैं श्रीनगर रहता हूं। कहने को घर 50 किलोमीटर दूर है, लेकिन मेरे लिए अगले जन्म तक की दूरी हो गई। साल-सालभर बाद लौटता हूं। बोलते हुए बिलाल रुक जाते हैं। वे रो रहे हैं- अम्मी कहती है, तू अब वापस मत लौट। हम देख भले न पाएं, कम से कम जिंदा और आजाद तो रहेगा।

तसल्ली पर पढ़े-सुने हुए सारे शब्द कम लग रहे हैं। कुछ रुककर वे आगे बताते हैं- गांव के लगभग सभी घरों में यही हाल है। मां-बाप अपने लड़कों को बाहर भेज रहे हैं, ताकि जबरन उन्हें आतंक से न जोड़ दिया जाए। लड़कियों के घरवालों के हाल और बुरे हैं। मिलिटेंट चुन-चुनकर उन घरों में आते हैं जहां कच्ची उम्र की लड़कियां हों। वे उनसे खाना बनवाते हैं और बात-बेबात रेप की धमकी भी देते हैं। कई ऐसे घर हैं, जहां मनपसंद या जल्दी खाना न पकाने पर उन्होंने रेप कर डाला। लौटते हुए कुछ इसी तरह की बात लोकल साथी ने भी दोहराई कि कैसे मिलिटेंट उन घरों में ज्यादा घुसते हैं, जहां जवान लड़कियां हों।

इज्जत जाने का खौफ मौत से कहीं बड़ा है। तो मां-बाप अपनी बच्चियों की कम उम्र में ही शादी करने लगे। लड़के तालीम के बहाने से बाहर भेज दिए गए। लड़कियां ब्याह दी गईं। अब सोपोर का हमारा गांव टूटे सपनों वाले बुढ़ाते मां-बाप का गांव बनकर रह गया है।

आप लोग विरोध क्यों नहीं करते? मेरे सवाल पर तड़ से जवाब मिलता है- वो हमारे सिर मैगजीन रख दें तो हम क्या करें! आपके साथ ऐसा हो तो आप क्या करेंगी! आराम में जीते लोग ही हिम्मत की कहानियां सुनाते हैं- बिलाल न कहकर भी मानो मुझे कोंच रहे हों।

इंटरव्यू खत्म हो चुका। कमरे में चाय औ तंदूर में सिंकी कश्मीरी रोटी ‘गिरदा’ के बीच बाकी साथी भी सिमट आए। रोटी कुतरते हुए हंसी-मजाक चलता है। साथ आए लोगों में से एक अपने हाथ के जख्म दिखाता है, जो मिलिटेंट्स से उसे मिले। किस्सा सुनाते हुए वो हंस रहा था, लेकिन उन कहकहों के पीछे भी खौफ की जो दास्तान थी, वो अब मैं साफ सुन पा रहा था। ‘जब तक वो दहशतगर्द हैं, यहां कोई सेफ नहीं’- बिलाल बार-बार दोहराते हैं।

(एहतियातन असल विक्टिम की पहचान छिपाई गई है।)

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."