अनिल अनूप
क्या ये किसी साजि़श का हिस्सा हैं? अथवा दंगों को प्रायोजित कराया जा रहा है? क्या पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया सरीखे अलगाववादी, जेहादी संगठन मुसलमानों को उकसा रहे हैं? आखिर शहरों में ही हिंदू-मुसलमान विभाजन इतना गहरा और व्यापक दिखाई क्यों देता है? गांवों में तो ऐसे टकरावों की स्थिति नहीं है। एकदम सामाजिक भाईचारा छिनता हुआ क्यों लग रहा है?
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक अंग्रेजी अख़बार में लेख लिखकर सांप्रदायिक टकराव को नफरत और विभाजन का वायरस करार दिया है। उनका आरोप है कि यह वायरस फैलाया जा रहा है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है या पार्टी साझा सरकार में है, उनके संदर्भ में पूछा जाए कि वहां सांप्रदायिक ज़हर का वायरस कौन फैला रहा है? आम आदमी पार्टी निर्बाध रूप से भाजपा को गुंडों और दंगेबाजों की पार्टी आरोपित कर रही है। देश में नगण्य हो रहे वामपंथी दलों ने इन दंगों को आरएसएस के ‘हिंदू राष्ट्र’ के एजेंडे का हिस्सा माना है। विपक्ष के एक दर्जन से ज्यादा दलों ने ‘शांति की अपील’ वाला साझा बयान तो जारी किया, लेकिन उनके निशाने पर भी भाजपा रही। कोई भी विपक्षी दल आरोपित चेहरों और संगठनों पर टिप्पणी तक नहीं कर सका। हमारी समझ में नहीं आता कि देश भर में तनाव और रंजिश का माहौल क्यों है? सामाजिक सद्भाव बिखरता क्यों जा रहा है? कई क्षेत्र जल रहे हैं, लोग मारे जा रहे हैं। वहां सांप्रदायिक टकराव उफान पर है। मज़हबी सह-अस्तित्व मानो समाप्त होता जा रहा है! यह दुर्भाग्य और विडंबना ही है कि देश के सामने कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, कोरोना वायरस एक बार फिर आंखें तरेर कर भयभीत और चिंतित कर रहा है, आर्थिक विषमताएं और विसंगतियां हैं, लेकिन दंगों के विश्लेषण करने पड़ रहे हैं। चूंकि सांप्रदायिक सौहार्द्र और देश की चिंता प्राथमिक विषय हैं, लिहाजा दंगों के कारणों को खंगालने की कोशिश की जा रही है कि आखिर दंगे या नफरती हिंसा क्यों भड़क रही है?
भारत में तो विभिन्न समुदाय एक बेहद लंबे वक्त से साथ-साथ रहते आए हैं। यही हमारी संस्कृति और सामंजस्य की खूबसूरती है, लेकिन पिछले एक अरसे से, खासकर हिंदू त्योहारों पर, मप्र, गुजरात, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक सामुदायिक और सांप्रदायिक टकराव हो रहे हैं। क्या ये किसी साजि़श का हिस्सा हैं? अथवा दंगों को प्रायोजित कराया जा रहा है? क्या पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया सरीखे अलगाववादी, जेहादी संगठन मुसलमानों को उकसा रहे हैं? आखिर शहरों में ही हिंदू-मुसलमान विभाजन इतना गहरा और व्यापक दिखाई क्यों देता है? गांवों में तो ऐसे टकरावों की स्थिति नहीं है। एकदम सामाजिक भाईचारा छिनता हुआ क्यों लग रहा है? राजधानी दिल्ली के जहांगीर पुरी इलाके में जो हिंसा भड़की थी, उसमें गोलियां तक चलाई गईं। दंगाइयों की गोली ने पुलिस के एक उपनिरीक्षक को भी घायल कर दिया। वह उपचाराधीन हैं। मुस्लिम घरों की छतों से औरतों ने भी पत्थर मारे, बोतलें फेंकी! मस्जिद, मदरसों से भी हमले किए गए। तलवारें लहराई गईं। यह पहली बार नहीं हुआ है। अलबत्ता इस बार नफरत की पराकाष्ठा रही है। यह हिंदुओं पर हमलों की पुरानी पद्धति रही है कि शोभा-यात्रा को निशाना बनाया जाता रहा है।
इस बार तो भद्दी गालियां भी दी गईं, जिन्हें हमारी नैतिकता लिखने से रोकती है। मज़हबी ज़हर इस कदर फैला कि उपद्रवियों ने श्रीराम और बजरंगबली के प्रति आस्थाओं पर सवाल किए। औरतें यह कहते सुनी गईं कि इन देवताओं की शोभा-यात्रा क्यों निकलने दी जाए? मुसलमानों को यह आपत्ति कब से होने लगी? इस्लाम का ‘पाक महीना रमजान’ भी जारी है। कोई दंगा इस आधार पर नहीं भड़का कि गैर-इस्लामी लोगों ने रोजे या इफ्तारी को नापाक किया है। दिल्ली पुलिस ने जो तलवारें और पिस्टलें बरामद की हैं, आखिर वे कहां से आईं? क्या मुस्लिम घरों में इनका संग्रह पहले से ही तैयार रहता है? क्या हमले की सुनियोजित साजि़श तय की गई थी? पुलिस कमोबेश दिल्ली के संदर्भ में यह निष्कर्ष जरूर दे कि मुस्लिम घरों में हथियार मौजूद रहते हैं क्या? कई राज्यों में भड़की हिंसा के संदर्भ में यह सवाल उठता रहा है, लेकिन आज तक अनुत्तरित है। पुलिस ने 20 से ज्यादा आरोपियों को अदालत के सामने पेश किया था, जिनमें दो को ही मात्र एक दिन के लिए पुलिस हिरासत में भेजा गया है, शेष न्यायिक हिरासत में हैं। राजधानी में 2020 में भी दंगा किया गया था। क्या उसी की कड़ी में मौजूदा दंगे हैं या कोई अन्य कारण हैं? ठोस निष्कर्ष सामने आना चाहिए।
जिस भारत में हर धर्म को पनपने व फलने-फूलने का सदियों से अवसर दिया वहां दो सम्प्रदायों के लोग इस हद तक कैसे जा सकते हैं कि एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को हिंसक तरीके से दबाने की कोशिश करें। इस मामले में हमें यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि मुस्लिम धर्म के अनुयायियों के साथ ही ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं? दरअसल मजहबी जुनून किसी भी सम्प्रदाय के विकास में रोड़ा होता है क्योंकि इससे उस समाज के लोगों की मानसिकता संकुचित हो जाती है और वे अपने परिवेश में ही मौजूद अलग धार्मिक तरीके से जीवन जीने वाले या पृथक ईश्वरीय मान्यता रखने वाले लोगों के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। हि मजहब की यह भौतिक आसक्ति अन्त में मनुष्य को उसी इंसानियत से कफा कर देती है जिसके लिए किसी मजहब की उत्पत्ति होती है। भारतीय संस्कृति में धर्म की परिभाषा मजहब (रिलीजन) नहीं है बल्कि व्यक्ति का वह मानवीय बोध है जो उसे विभिन्न परिस्थितियों में यथोचित कर्म करने को प्रेरित करता है। अतः भारत में ‘धारयति सः धर्मः’ ही धर्म है। अर्थात जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है। इसके साथ ही इस धरती में साकार ब्रह्म की उपासना से लेकर निराकार ब्रह्म की उपासना का भी बराबर का महात्म्य रहा है। सनातन परंपरा में दोनों ही उपासना पद्धतियों की प्रतिष्ठा है। मगर इस पूरे सनातन दर्शन में कट्टरता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं रही है। श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं और ईश्वर की सत्ता की स्थापना में सकल ब्रह्मांड की रचना की विवेचना भी प्रस्तुत करते हैं परन्तु अन्त में वही श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन मैंने तुम्हें सब प्रकार से सुपरिचित करा दिया है अब तुम्हारी इच्छा है कि उस पर मनचाहे तरीके से आचरण करो।’ यह सच है कि गीता में एक बार भी मूर्ति पूजा की बात नहीं आती है मगर साथ ही यह भी सच है कि श्रीकृष्ण स्वयं अपने विराट स्वरूप का दर्शन करा कर अर्जुन को ‘जग माया’ से साक्षात्कार कराते हैं।
बेशक इस्लाम में भी निराकार ईश्वर अर्थात अल्लाह की परिकल्पना है मगर इसमें मजहब को दुनियावी अखलाख में उतारने की ताईद की गई है। अर्थात उससे हट कर कर्म करना निषिद्ध है। जाहिर है इसका लाभ मुस्लिम आलिमों और उलेमाओं ने जमकर उठाया और मुसलमानों को धर्मांध बनाने में उन्होंने कोई कोर-कसर कभी नहीं छोड़ी लेकिन भारत में इस्लाम के पदार्पण के बाद इस पर भारतीय रस्मो-रिवाजों और परंपराओं का असर पड़ा और सूफी सम्प्रदाय ने ‘कण-कण में भगवान’ के दर्शन को विस्तार देने का प्रयास अपने तरीके से किया। इसके साथ ही इस्लाम के अनुयायी भारत की विविध संस्कृति के विभिन्न इलाकों में जब धर्मान्तरित हुए तो उन्होंने अपने क्षेत्र की संस्कृति को नहीं छोड़ा। इससे भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच पूजा पद्धति अलग होने के बावजूद सौहार्द भी बना रहा हालांकि सात सौ वर्षों तक मुस्लिम शासकों की निगेहबानी में रहने की वजह से हिन्दू समाज पर कुछ न कुछ दबाव भी बना रहा मगर औरंगजेब ने सत्तारूढ़ होते ही इसे पूरी तरह पलट दिया, इस्लामी निजाम को क्रूरता के साथ भारतीयों पर गालिब करना चाहा।मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों ने औरंगजेब को, निजाम को हमेशा महिमा मंडित करने का प्रयास किया और भारत के मुसलमानों के लिए उन आक्रान्ताओं को उनका नायक या हीरो बनाया जिन्होंने हिन्दुओं पर या तो जुल्म ढहाये थे अथवा हिन्दू धर्म के प्रतीकों को नष्ट किया था। यही वजह है कि मुस्लिम मुल्ला-मौलवी उस मुगल शहजादे दारा शिकोह का नाम कभी जुबान पर नहीं लाते जो हिन्दू व मुस्लिम संस्कृतियों की एकजुटता चाहता था। इतना ही नहीं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) के उलेमा तुर्की के राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क का नाम लेते हुए भी घबराते हैं। 1936 में कमाल अतातुर्क ने तुर्की में कठमुल्लावादी सोच को समाप्त करने के लिए और मस्जिदें बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था तथा स्कूल व कालेज खोलने पर जोर दिया था और हर जुम्मे के दिन मस्जिदों से दिये जाने वाले खुतबे तक का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। खुतबे सरकार लिख कर देती थी जिसमें मुसलमान नागरिकों की शिक्षा पर व आधुनिक विचार अपनाने पर जोर होता था। मगर भारत के आजाद होने पर यहां उल्ट ही हुआ। मुसलमानों को मजहब की चारदीवारी में ही घूमने के इंतजाम किये गये और उनका ‘मुस्लिम पर्नल लाॅ’ लागू रहा। जिस वजह से भारत में उस मनसिकता को जड़ से नहीं उखाड़ा जा सका जिसकी वजह से 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए थे और मुसलमानों के लिए पृथक पाकिस्तान बना था।
जहांगीर पुरी में जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं उससे यही लगता है कि एक धर्म के किसी स्थल के सामने से दूसरे धर्म के मानने वालों को अपनी परंपराओं को निभाने का अधिकार नहीं है। मगर साथ ही यह भी हमें ध्यान रखना होगा कि किसी भी धर्म के मानने वाले लोगों के लिए कानून का पालन करना भी बहुत जरूरी है। जहांगीर पुरी में यदि कोई शोभा यात्रा तीन बार भी गुजरी तो उससे किसी को क्या फर्क पड़ सकता है मगर किसी दूसरे धर्म के लोगों को उकसाने के लिए किया गया कोई भी कार्य न्यायसंगत या कानून संगत भी नहीं हो सकता। हिंसक वारदातों की जांच करने का पुलिस को पूरा अधिकार है मगर उसकी जांच में खलल डालने वालों के लिए भी कानून को अपना रास्ता तो अख्तियार करना पड़ेगा। पुलिस को किसी भी महिला या पुरुष की तफशीश करने का भी पूरा हक है। इस पर किसी भी समुदाय के लोगों को भड़कना नहीं चाहिए।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."