अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
बाराबंकी | तेहरान | नजफ़। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के एक छोटे से गांव से शुरू हुई एक अनदेखी, अनकही यात्रा, जो अरब की रेत और फारस की वादियों से गुजरती हुई ईरान के सर्वोच्च धार्मिक सिंहासन तक जा पहुंचती है। यह कहानी है सैयद अहमद मुसवी की — एक भारतीय सूफी विद्वान, जिनकी रूहानी यात्रा ने आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसी क्रांति से जोड़ा, जिसने 20वीं सदी की भू-राजनीति की दिशा ही बदल दी।
और इस क्रांति के केंद्र में थे — अयातुल्ला अली खामेनेई, आज के ईरान के सर्वोच्च नेता।
🏡 बाराबंकी: जहां से सफर शुरू हुआ
उत्तर प्रदेश का बाराबंकी जिला, अवध की संस्कृति और सूफी परंपरा का एक मजबूत केंद्र रहा है। यहीं के एक छोटे से गांव में सैयद अहमद मुसवी का जन्म हुआ। यह क्षेत्र तब ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था, और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर लगातार तनाव बना रहता था।
सैयद अहमद मुसवी एक उच्च सैयद खानदान से थे, जिनकी परंपरा पैगंबर मोहम्मद के वंशजों में मानी जाती है। इनका झुकाव बचपन से ही इस्लामी ज्ञान, आध्यात्मिक साधना और सामाजिक न्याय की ओर था। परंतु, उस दौर में भारत में धार्मिक विद्वानों को खुलकर बोलने और शिक्षा देने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
🕋 नजफ की ओर रुख: रूहानी ज्ञान की खोज में
सैयद अहमद मुसवी ने भारत छोड़कर इराक के पवित्र शहर नजफ की ओर रुख किया — जो शिया इस्लाम के चार प्रमुख धार्मिक केंद्रों में से एक है। नजफ उस समय इस्लामी दर्शन, फिक़्ह (क़ानूनशास्त्र), और अध्यात्म का एक जीवंत केंद्र था। उन्होंने वहाँ मशहूर हौज़ा (धार्मिक विश्वविद्यालय) में अध्ययन किया और विद्वानों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई।
उनका जीवन नजफ में कई वर्षों तक अध्ययन, साधना और सेवा में बीता, परंतु उनकी तलाश पूरी नहीं हुई थी। वे आगे बढ़े — ईरान की ओर।
🕌 खुमैन में ठिकाना: जहां वंश की नींव पड़ी
सैयद अहमद मुसवी नजफ से ईरान के खुमैन शहर में आकर बस गए। खुमैन उस समय एक शांत, पारंपरिक और धार्मिक कस्बा था। यहां उन्होंने एक ईरानी महिला से विवाह किया और यहीं उन्होंने स्थायी निवास बना लिया।
उनके यहां एक बेटा हुआ — मुस्तफा मुसवी, जो आगे चलकर एक ऐसे बेटे के पिता बने जो दुनिया भर में इस्लामी क्रांति का चेहरा बना: रूहुल्लाह खुमैनी।
🌏 भारत से फारस तक: वंश और विचार की यात्रा
रूहुल्लाह खुमैनी, ईरान के 1979 की इस्लामी क्रांति के जनक, खुद को “भारतीय मूल का” मानते थे और उन्होंने कई बार अपने नाना के बाराबंकी के रिश्ते का ज़िक्र किया। हालांकि, ईरानी इतिहास में इस तथ्य को ज़्यादा प्रचार नहीं मिला, परंतु शोधकर्ताओं और दस्तावेजों में यह पुष्टि की गई है कि सैयद अहमद मुसवी का जन्म स्थान भारत का बाराबंकी ही था।
ईरान में रूहुल्लाह खुमैनी ने शाह के खिलाफ विद्रोह की मशाल जलाई, धर्म और राजनीति को एक मंच पर खड़ा किया और एक धार्मिक गणराज्य की स्थापना की। उनके निधन के बाद, 1989 में अयातुल्ला अली खामेनेई को ईरान का सर्वोच्च नेता नियुक्त किया गया।
👳♂️ अयातुल्ला अली खामेनेई: नई पीढ़ी की विरासत
अली खामेनेई का जन्म 1939 में मशहद, ईरान में हुआ। वे खुद एक धार्मिक परिवार से थे और उनके पूर्वज भी धार्मिक शिक्षा और सुधार के लिए प्रसिद्ध रहे। हालांकि वे खुमैनी के जैविक वंशज नहीं थे, लेकिन विचारों और नेतृत्व की परंपरा में वे उनके उत्तराधिकारी थे।
उनकी धार्मिक शिक्षा, राजनीतिक दृष्टिकोण और लेखन की शैली खुमैनी के समान है। 1979 की क्रांति के बाद, वे राष्ट्रपति बने और फिर सर्वोच्च नेता — और आज तक वह पद संभाले हुए हैं।
उनके शासनकाल में ईरान ने धार्मिक और सैन्य रूप से खुद को मज़बूत किया, और वे मध्य-पूर्व की राजनीति में एक केंद्रीय व्यक्ति बनकर उभरे।
🇮🇳 भारत-ईरान संबंधों की रूहानी जड़ें
बाराबंकी से शुरू हुई यह रूहानी यात्रा सिर्फ एक पारिवारिक कहानी नहीं है। यह भारत और ईरान के बीच गहरे सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक संबंधों की बुनियाद भी है।
ईरान में आज भी कई धार्मिक पुस्तकालयों, मदरसों और विश्वविद्यालयों में भारतीय मूल के विद्वानों का हवाला दिया जाता है। अली खामेनेई ने खुद कई बार अपने भाषणों में भारतीय सभ्यता, गांधीजी और स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र किया है।
इस यात्रा में नजफ एक सांस्कृतिक पुल के रूप में सामने आता है — जो भारत के धार्मिक विद्वानों को अरब और फारस से जोड़ता है।
📜 इतिहास में खोई एक कड़ी: जिसे फिर से जोड़ना होगा
सैयद अहमद मुसवी की यह यात्रा इतिहास के पन्नों में कहीं खो सी गई थी। न तो बाराबंकी ने कभी गर्व से इसे याद किया, न ही भारत के मुख्यधारा इतिहासकारों ने इसे गहराई से दर्ज किया। परंतु आज, जब वैश्विक राजनीति में ईरान की भूमिका अहम है और खामेनेई जैसे नेताओं का प्रभाव स्पष्ट है, तब यह समझना जरूरी हो गया है कि इसकी जड़ें कितनी गहरी और कितनी “भारतीय” हैं।
बाराबंकी की यह मिट्टी सिर्फ अवध की नहीं, बल्कि अब फारस की भी साझी विरासत है।
सैयद अहमद मुसवी की कहानी भारत की उस रूहानी विरासत की याद दिलाती है, जो सरहदों से परे जाकर विचारों और संस्कारों के रूप में जीवित रहती है। यह उस भारत की कहानी है, जो आध्यात्मिक शक्ति से विश्व को जोड़ता है — खामोशी से, लेकिन स्थायी रूप से।
बाराबंकी से खुमैन तक, और खुमैन से तेहरान तक — यह सिर्फ एक यात्रा नहीं, बल्कि इतिहास की वह अदृश्य लकीर है जो दो संस्कृतियों को एकसूत्र में बांधती है।