पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत के मायने 

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केवल कृष्ण पनगोत्रा

आम आदमी पार्टी ने पंजाब में 117 में से 92 विधानसभा सीटें हासिल करके एक इतिहास रचा है. इससे पूर्व 1997 में जनता ने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को 75 सीटें सौंपी थीं. 2017 के चुनाव में कांग्रेस को 77 सीटें प्राप्त हुई थीं. 

कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस जीत पर केजरीवाल को जता रहे हैं कि उन्हें इस बात का ध्यान रखना होगा. यानि जिस प्रकार जनता ने शिअद को 25 साल बाद 75 से 04 पर ले आई और कांग्रेस को 77 से 18 पर उसी प्रकार आ.आ.प भी राजनीतिक अर्श से फर्श पर आ सकती है.

आ.आ.प की इस जीत पर कुछ विश्लेषक तो केजरीवाल की पार्टी की जीत के मायने ही नहीं निकाल पा रहे या फिर बेतुकी और भ्रामक बातें गढ़ कर उसी मानसिक दुर्बलता को उजागर कर रहे हैं, जिस सियासी मानसिक दुर्बलता के कारण

आ.आ.प जीत के शिखर पर पहुँची. यह समझने वाली बात है कि आम आदमी पार्टी के लोग जब पारम्परिक राजनीति के खात्मे की बात करते हैं तो उनका आशय राजनैतिक शुचिता से रहता है, न कि गंदी या भ्रामक राजनीति से, जिससे जनता लुटी महसूस करे. ज्ञात हो कि केजरीवाल भी उसी व्यवस्था का हिस्सा हैं, जिसके शेष दल हैं. फर्क मात्र यह है कि केजरीवाल कल्याणकारी राज्य के खत्म हो रहे कांसैप्ट में जान फूंक रहे हैं. बात तो छोटी सी है लेकिन यदि समझ ली जाए तो बहुत बड़ी है. 

सर्व प्रथम आम आदमी पार्टी की जीत के मायने पार्टी की जीत के बाद आए भगवंत मान के उस बयान से समझने की कोशिश करते हैं जब पंजाब के धूरी में उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यालयों में मुख्यमंत्री की तस्वीर नहीं होगी और इसकी जगह बाबा साहिब अम्बेदकर और शहीद भगत सिंह की तस्वीर होगी. 

यह कहकर उन्होंने पिछले कुछ सालों से देश में पनप चुकी एक ऐसी ओछी राजनीतिक आदत पर जनता का ध्यान आकर्षित किया है जहां सत्ता शीर्ष पर आसीन नेताओं में बलात महिमा करवाने की प्रवृत्ति फैल रही है.

दूसरी बात- पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत ने चुनावों में धर्म और डेरा फैक्टर को भी खारिज किया. यहां यह बताना पड़ेगा कि पंजाब के मालवा, माझा और दोआबा क्षेत्र में अनुमानित 10000 डेरे हैं और लगभग 300 डेरे ऐसे हैं जो चुनाव नजदीक आने पर सक्रिय हो जाते हैं. एक प्रकार से आम आदमी पार्टी ने परंपरा से हटकर

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राजनीति को एक खास दिशा दी है जहां धर्म और राजनीति के घालमेल को जनता ने एक प्रकार से खारिज किया. आदत और पारंपरिक राजनीति के वशीभूत हर पार्टी ने डेरों की शरण ली मगर आम आदमी पार्टी ने इस प्रवृत्ति से दूरी बनाए रखी.

तीसरी बात- पंजाब के चुनाव में पहली बार धार्मिक और जातीय समीकरण का गणित बुरी तरह फेल हुआ. यहां तक कि पंजाब की सियासी पार्टियों के काडर वोट भी आम आदमी पार्टी की झोली में चले गए. कांग्रेस दलित और भाजपा को हिन्दू वोटों से भी हाथ धोना पड़ा.

चौथी बात- पंजाब के विधानसभा चुनाव में आरोपों  की परंपरागत और घिसी पिटी राजनीति भी काम नहीं आई. विरोधी दलों का 2017 वाला ‘बाहरी’, ‘खालिस्तानी’ और ‘आतंकवादी’ का आरोप कोई करिश्मा नहीं कर पाया. वस्तुतः जनता ने कांग्रेस, शिअद और भाजपा को यह अहसास करवा दिया कि आरोपों की झूठी और बेबुनियाद सियासत का वक्त अब जा रहा है.

पाँचवी बात- पंजाब विधानसभा चुनावों का विशेष पाठ यह है कि इसमें जनसेवा की राजनीति का

बुनियादी उद्देश्य उजागर हुआ है. इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि राजनीति का बुनियादी उद्देश्य जन कल्याण एवं जनसेवा है ना कि स्व-सेवा या स्व-कल्याण. लेकिन कालांतर में राजनीति ने ज़मीन-जायदाद और धन-संपदा की लूट और संचयन का मारक रूप धारण कर लिया. पूंजीवाद की लुटेरी और शोषित व्यवस्था से राजनीति भी प्रभावित हुई और और अपने मूल उद्देश्य से भटक गई.

केजरीवाल ने अपनी पार्टी को उपरोक्त विसंगतियों से बचाने और उससे दूर रहने के प्रयास और प्रयोग किए. यह इन्हीं प्रयासों और प्रयोगों का प्रतिफल है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली से बाहर भी धीरे-धीरे आवाम को आकर्षित करने लगी है. सच, सेवा और मर्यादा की राजनीति का जो बीज केजरीवाल बो रहे हैं, उसका अनुसरण हर नेता और राजनीतिक दल के लिए अावश्यक है. घृणा, गाली-गालोज, उपहास और मिथ्या आरोपों की राजनीति को आखिर एक दिन समाप्त होना है. 

खैर, इन बातों से दीगर केजरीवाल और भगवंत मान के लिए पंजाब इन्कलाब जिंदाबाद के नारे को अर्थ देने और सेवा-शुचिता की राजनीति के परीक्षण का रणक्षेत्र है. अच्छे या बुरे इतिहास के दो पन्नों को पढ़ने में दो मिनट का ही समय दरकार है मगर उसे बनाने और बिगाड़ने में दो सदियों का समय भी कई बार थोड़ा लगता है.

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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