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20 December 2024 4:08 pm

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संपादकीय : थैले में फिलीस्तीन की आजादी और जुबान पर भारत की राजनीति

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अनिल अनूप

गांधी-नेहरू परिवार भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्याय है जिसने लगभग एक शताब्दी तक देश की सत्ता और समाज को प्रभावित किया है। मोतीलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक का यह सफर कई उतार-चढ़ावों का गवाह रहा है। आज जब सोनिया गांधी राज्यसभा की सदस्य हैं और उनके बेटे राहुल गांधी तथा बेटी प्रियंका गांधी लोकसभा में हैं, तो यह पहली बार है कि इस परिवार की तीन पीढ़ियाँ संसद में सक्रिय हैं। बावजूद इसके, पार्टी और परिवार की पकड़ भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीतिक जमीन पर कमजोर होती जा रही है। यह विडंबना है कि जो परिवार कभी भारत की धुरी समझा जाता था, वह आज अपनी जड़ों और जनता से कट चुका है।

पारिवारिक प्रभाव और रणनीतिक चूक

सोनिया गांधी के राजनीतिक कौशल पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, लेकिन भारतीय संस्कृति, इतिहास और समाजशास्त्र से उनका सीमित जुड़ाव उनकी नेतृत्व शैली पर भारी पड़ा। राहुल और प्रियंका के लिए, जिन्होंने बचपन में पिता राजीव गांधी को खो दिया, मातृ प्रभाव ही निर्णायक रहा। राहुल गांधी की राजनीति में अक्सर अपरिपक्वता दिखाई देती है, चाहे वह ‘जलेबी की फैक्टरी’ जैसा बयान हो या नीतिगत स्पष्टता का अभाव। प्रियंका गांधी ने भी हाल ही में राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय भूमिका निभाई है, लेकिन उनके प्रयासों में एक गहरी रणनीतिक चूक स्पष्ट होती है।

प्रियंका का ‘फिलीस्तीन की आजादी’ का समर्थन लेकर संसद में आना, यह दर्शाता है कि कांग्रेस सत्ता वापसी के लिए वैश्विक मुद्दों को भुनाने की रणनीति अपनाने लगी है। यह भले ही प्रतीकात्मक हो, लेकिन इससे यह सवाल उठता है कि क्या भारत की जनता का समर्थन केवल वैश्विक नारेबाजी से वापस पाया जा सकता है? भारत में फिलीस्तीन के मुद्दे का सीधा प्रभाव नहीं है, और शायद कांग्रेस इस बात को समझने में चूक रही है कि देश के वोटर की प्राथमिकताएं कुछ और हैं।

जाति और ईवीएम की राजनीति

कांग्रेस की राजनीति अब जातिगत जनगणना और ईवीएम की विश्वसनीयता पर केंद्रित होती दिख रही है। जाति-आधारित राजनीति का प्रयोग करके कांग्रेस यह मान बैठी है कि देश में जातिगत ध्रुवीकरण ही उन्हें सत्ता दिला सकता है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बयानों में यह मुद्दा बार-बार उभरता है। वहीं, ईवीएम पर लगातार सवाल उठाना कांग्रेस की राजनीतिक हताशा का संकेत देता है। सत्ता में वापसी का रास्ता ईवीएम की आलोचना से नहीं बल्कि ज़मीन से जुड़े मुद्दों और नीतियों के स्पष्ट दृष्टिकोण से निकलता है।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस हकीकत को साफ शब्दों में बयां कर दिया है कि ईवीएम के मुद्दे पर रोना बंद करके कांग्रेस को कोई और रास्ता तलाशना चाहिए। लेकिन कांग्रेस के पास दूसरा कोई ठोस रास्ता दिखाई नहीं देता। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे अनुभवी नेता को आगे किया गया है, जो पार्टी के लिए नई राह तलाशने की कोशिश में हैं। परंतु असली कमान अब भी गांधी परिवार के हाथ में है, जिससे खड़गे की भूमिका केवल एक प्रतीकात्मक नेता की रह जाती है।

मुसलमानों पर राजनीतिक निर्भरता

कांग्रेस का ‘हिंदू को छोड़ो, मुसलमान को पकड़ो’ का नया राजनीतिक फॉर्मूला भी अब असफल होता नजर आ रहा है। भारत के मुसलमानों ने अपनी पहचान को लेकर एक नई जागरूकता हासिल की है। वे अब जातीय और सामाजिक रूप से अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं, जिसका उदाहरण हाल ही में हुए गुज्जर सम्मेलन में देखा गया। यह सम्मेलन दर्शाता है कि हिंदू और मुसलमान एक समान सामाजिक धारा में बहने लगे हैं, जिससे कांग्रेस की पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति कमजोर हो रही है।

प्रियंका गांधी का ‘फिलीस्तीन की आजादी’ का नारा मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने की एक कोशिश थी, लेकिन यह प्रयास व्यर्थ साबित हुआ। आम भारतीय मुसलमान के लिए फिलीस्तीन एक दूर का मुद्दा है। वे स्थानीय समस्याओं और रोज़गार जैसे बुनियादी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। कांग्रेस की यह विफलता उसकी जमीनी हकीकत से कटे होने का एक और उदाहरण है।

कांग्रेस का भविष्य: नेतृत्व और नीतियों का संकट

कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीय नेतृत्व और स्पष्ट नीतियों का अभाव है। गांधी परिवार अब भी पार्टी की धुरी बना हुआ है, लेकिन उनकी नेतृत्व शैली और रणनीतियाँ बार-बार विफल हो रही हैं। विदेशी विचारधाराओं और विदेशी समर्थन के भरोसे सत्ता पाने की कोशिशें भारतीय मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर पा रही हैं। किसान, युवा, और मध्यम वर्ग अब उन दलों की ओर देख रहे हैं जो स्थानीय मुद्दों पर काम कर रहे हैं।

कांग्रेस को अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। देश की जनता की वास्तविक समस्याओं—रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समरसता—पर ध्यान देना होगा। गांधी परिवार को यह समझना होगा कि सत्ता का रास्ता नारेबाजी, जातिवाद या वैश्विक मुद्दों से नहीं, बल्कि ज़मीन से जुड़े कार्यों और विश्वास से ही निकलेगा। मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेताओं को स्वतंत्रता से काम करने देना और नई पीढ़ी को ज़िम्मेदार बनाना ही कांग्रेस के पुनरुत्थान का एकमात्र रास्ता है। अन्यथा, यह पुराना राज परिवार, अपनी जकड़न और भ्रम के कारण, धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमटता जाएगा।

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