अनिल अनूप
“मेरा मतलब क्या है?”—यह सवाल एक साहित्यकार के भीतर की उस गहरी उलझन का प्रतीक है, जो अपनी आत्मा के भीतर निरंतर विद्यमान रहता है।
एक ऐसे लेखक का मन, जो लेखन के गुण से संपन्न है, लेकिन आर्थिक स्थिति से जूझ रहा है, कभी अपने शब्दों से राहत ढूंढ़ता है, तो कभी अपने विचारों की गहराई में खो जाता है।
उसके पास एक भरा-पूरा परिवार है, जिसमें रिश्तों की एक कोमलता, सजीवता और समर्थन है, लेकिन फिर भी उसके भीतर एक खालीपन है, एक खाली जगह जिसे वह भर नहीं पा रहा है।
आर्थिक तंगी और संघर्ष की चुप्पी में, वह आत्मनिर्भरता के बारे में सोचता है। परिवार से प्रेम और समर्थन मिलने के बावजूद, क्या वह अपने लेखन के माध्यम से दुनिया से वह मान्यता प्राप्त कर सकेगा, जिसकी उसे तलाश है? उसकी कल्पनाएँ और विचार उस समय कागज पर उभरते हैं, जब उसके मन की गहरी खामोशी से टकराती हैं।
वह सवाल करता है—”मेरा मतलब क्या है?” यह सवाल सिर्फ अस्तित्व के बारे में नहीं, बल्कि अपने लेखन के उद्देश्य के बारे में है। क्या वह जो लिखता है, वह समाज के लिए कोई परिवर्तन लाएगा? क्या उसकी कलम किसी के जीवन में कोई फर्क डालेगी, या यह बस एक आत्ममुग्धता का रास्ता बनकर रह जाएगा?
उसकी कलम शब्दों का चमत्कारी संसार रचती है, लेकिन भीतर की दुनिया की असमर्थता उसे किसी बड़े उद्देश्य से जोड़ने की कोशिश करती है। क्या उसका संघर्ष, उसका दर्द, उसकी लेखनी के रचनात्मक परिणाम को उस प्रकाश तक पहुँचाएगा जो उसे उम्मीद है? या फिर यह सब निरर्थक रहेगा, केवल एक शाश्वत सवाल—”मेरा मतलब क्या है?”—के रूप में, जो कभी खत्म नहीं होता, कभी न हल होने वाला।
यह प्रश्न उस साहित्यकार के दिल का दरवाजा है, जो अनजाने में न केवल अपनी दुनिया से, बल्कि समाज और संस्कृति से भी अपने अस्तित्व का मूल्य पूछता है।