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प्रयागराज

जस्टिस शेखर कुमार यादव के बयान पर मचा बवाल: क्या न्यायपालिका की निष्पक्षता पर उठे सवाल?

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अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट

हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस शेखर कुमार यादव एक बार फिर अपने बयान के कारण सुर्खियों में हैं। 8 दिसंबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लाइब्रेरी में विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) के विधि प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर चर्चा की और कहा कि “हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा।” इस बयान ने देशभर में एक नई बहस को जन्म दे दिया है और कई पक्ष-विपक्ष की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।

जस्टिस यादव का बयान और कार्यक्रम की पृष्ठभूमि

इस कार्यक्रम का आयोजन ‘वक़्फ़ बोर्ड अधिनियम’, ‘धर्मांतरण-कारण एवं निवारण’ और ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ जैसे विषयों पर विचार-विमर्श के लिए किया गया था। इस मौके पर जस्टिस शेखर यादव ने जोर देकर कहा कि देश के लिए एक समान क़ानून होना चाहिए। उन्होंने एक से अधिक विवाह, तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाओं की निंदा की और कहा कि अब ऐसी परंपराएं नहीं चलेंगी।

जस्टिस यादव का तर्क

34 मिनट के अपने भाषण में उन्होंने 1985 के चर्चित शाह बानो केस का उल्लेख करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को गलत ठहराया था, लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसे लागू नहीं किया। उन्होंने कहा, “हिंदुस्तान में नारी को देवी का दर्जा दिया गया है। किसी महिला के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती। एक से अधिक शादी, तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाएं अब स्वीकार्य नहीं हैं।”

उन्होंने अपने बयान में ‘बहुसंख्यक’ का संदर्भ देते हुए स्पष्ट किया कि इसका मतलब केवल हिंदू समुदाय से नहीं, बल्कि उन लोगों से है जिनकी सोच प्रगतिशील है और जो देश को आगे ले जाने की क्षमता रखते हैं।

आलोचना और विरोध

जस्टिस यादव के इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। कई लोगों ने इसे न्यायपालिका की निष्पक्षता और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताया। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने सवाल उठाया कि किसी धार्मिक संगठन की बैठक हाई कोर्ट परिसर में कैसे हो सकती है। उन्होंने कहा, “एक मौजूदा जज का इस तरह के कार्यक्रम में शामिल होना और ऐसा बयान देना संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।”

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन-1997’ का हवाला देते हुए कहा कि किसी न्यायाधीश को ऐसे विवादास्पद और राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक बयान नहीं देना चाहिए।

 

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने मुख्य न्यायाधीश से इस मामले में स्वत: संज्ञान लेने की मांग की। वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और अन्य विपक्षी दलों ने जस्टिस यादव को पद से हटाने की मांग की।

समर्थन में उठी आवाजें

बीजेपी के विधायक शलभ मणि त्रिपाठी ने जस्टिस यादव की सराहना करते हुए कहा कि सच बोलने का साहस दिखाने के लिए उन्हें सैल्यूट है। अभिषेक आत्रेय, जो वीएचपी के विधि प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सह-संयोजक हैं, ने कहा कि वीएचपी पर कोई प्रतिबंध नहीं है और वकीलों के कार्यक्रम में जजों का आना कोई नई बात नहीं है।

जस्टिस यादव के विवादित बयानों का इतिहास

यह पहली बार नहीं है जब जस्टिस यादव ने विवादास्पद बयान दिया हो। सितंबर 2021 में उन्होंने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही थी और दावा किया था कि “गाय एकमात्र ऐसा पशु है जो ऑक्सीजन छोड़ता है।” दिसंबर 2021 में उन्होंने यूपी चुनाव टालने का सुझाव प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग को दिया था ताकि चुनावी रैलियों में भीड़ को रोका जा सके।

जस्टिस शेखर कुमार यादव का यह ताजा बयान न्यायपालिका की निष्पक्षता, धर्मनिरपेक्षता और संविधान की मर्यादा पर गंभीर सवाल खड़े करता है। जहां एक ओर कुछ लोग इसे सत्य की अभिव्यक्ति मान रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह बहस का मुद्दा बन गया है कि क्या न्यायाधीशों को सार्वजनिक मंचों पर इस तरह की टिप्पणियां करनी चाहिए। यह विवाद न केवल न्यायपालिका की छवि को प्रभावित करता है, बल्कि लोकतंत्र में विश्वास और भरोसे को भी चुनौती देता है।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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