उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रयागराज कुंभ में भगदड़ के दौरान 37 लोगों की मौत की पुष्टि की। यही संख्या सरकार के आधिकारिक बयान, महाकुंभ के ट्विटर हैंडल और मुआवज़े के आंकड़ों में दोहराई जाती रही।
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
बीबीसी की एक लंबी, ज़मीनी और बहुस्तरीय पड़ताल ने इस आधिकारिक कथन की परतें उधेड़ दी हैं। रिपोर्ट के अनुसार, घटनास्थल, वीडियो फुटेज, अस्पतालों की गवाही और परिजनों की मौखिक/दृश्य पुष्टि के आधार पर मृतकों की संख्या कम से कम 82 पाई गई।
अब सवाल यह है कि सरकार ने सिर्फ 37 की मौत क्यों मानी? और जिन 45 अन्य मृतकों का ज़िक्र बीबीसी ने किया, उनके प्रति सरकार की चुप्पी क्यों?
जब मौत की कीमत नकद दी गई — सवाल उठता है, कहां से आई इतनी नकदी?
पड़ताल में जो सबसे चौंकाने वाला पहलू सामने आया, वह था पांच-पांच लाख रुपये की कैश राशि, जो 26 मृतकों के परिजनों को उत्तर प्रदेश पुलिस के ज़रिए सादे कपड़ों में दी गई।
इन पैसों का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं, कोई रसीद नहीं, और सबसे अहम—कोई जवाबदेही नहीं।
परिजन बताते हैं कि उन्हें जबरन ऐसे कागज़ों पर दस्तख़त कराए गए जिनमें लिखा था कि मृत्यु ‘स्वाभाविक’ थी या ‘अचानक तबीयत बिगड़ने’ से हुई।
यहाँ ये प्रश्न उठता है:
- 👉 क्या यह राज्य की संवेदनहीनता है?
- 👉 क्या प्रशासन अपनी विफलता को ढंकने के लिए मुआवज़ा ‘कैश’ में बांट रहा है ताकि न सवाल उठे, न रिकॉर्ड बने?
- दो श्रेणियों में बंटे मरे हुए लोग — कुछ ‘सरकारी’, कुछ ‘गैर-सरकारी’?
बीबीसी की पड़ताल के मुताबिक, मृतकों को तीन श्रेणियों में बांटा गया:
1. वो जिनके परिजनों को 25 लाख रुपये डीबीटी/चेक से मिले।
इनके मृत्यु प्रमाण पत्रों में जगह का ज़िक्र ‘फोर्ट कैंट, वार्ड-7’ बताया गया।
2. वो जिनके परिजनों को पांच लाख रुपये नकद मिले, पर किसी रिकॉर्ड में नाम नहीं।
इनके प्रमाण पत्र में लिखा है — ‘सेक्टर 20 या 21, झूसी क्षेत्र’।
3. वो जिनके परिवारों को अभी तक कोई मुआवज़ा नहीं मिला।
इनकी मृत्यु की पुष्टि न सरकार ने की, न मेला प्रशासन ने।
यह वर्गीकरण ही यह साबित करता है कि मृत्यु की गिनती ज़ोन, ज़िम्मेदारी और शायद राजनीतिक प्रभाव के अनुसार तय हो रही थी, न कि मानवीय संवेदना से।
लोकतंत्र में गिनती नहीं, पारदर्शिता चाहिए
आज जब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक डिजिटल भुगतान और डीबीटी को पारदर्शिता की संज्ञा देते हैं, तब किसी राज्य की पुलिस द्वारा ग्रामीण घरों में जाकर 500-500 के नोटों में पांच लाख कैश देना, एक खामोश परछाईं को जन्म देता है—क्या यह प्रशासन का डर है या व्यवस्था की नाकामी?
- अगर सरकार ने मुआवज़ा देने की नीयत से नकद राशि दी भी, तो वह किस बजट मद से आई?
- क्या वित्त मंत्रालय को इसकी जानकारी थी?
- क्या विधानसभा में इसका जिक्र हुआ?
नहीं!
और यही वह बिंदु है जहां से प्रशासनिक जवाबदेही की पूरी नींव हिलती दिखती है।
जब मृतक की पहचान भी सियासत की मोहताज बन जाए
झारखंड के शिवराज गुप्ता, जिनका शव बीबीसी के हाथ लगे एक वीडियो में अन्य शवों के साथ मेला अस्पताल में साफ दिखाई दे रहा है — उन्हें मुआवज़ा क्यों नहीं मिला?
उत्तर यह है:
शायद इसलिए कि वह झारखंड से थे।
या इसलिए कि उनका नाम उन प्राथमिक मौतों की सूची में दर्ज नहीं हुआ, जहां प्रमाण पत्र में ‘फोर्ट कैंट’ लिखा हो।
जब मृत्यु का स्थान मुआवज़े की कीमत तय करने लगे, तब समझ लेना चाहिए कि हम प्रशासनिक अमानवीयकरण के उस मोड़ पर पहुंच चुके हैं जहां पीड़ितों को राहत नहीं, वर्गीकृत किया जाता है।
मौन क्यों है सरकार?
बीबीसी द्वारा लगातार पूछे गए सवालों का उत्तर न उत्तर प्रदेश पुलिस ने दिया, न प्रशासन ने।
यूपी सरकार के सूचना निदेशक और प्रयागराज के डीएम ने भी संवाद से परहेज़ किया।
यह चुप्पी साफ़ तौर पर सरकारी विफलता और जवाबदेही से बचने की कोशिश के रूप में देखी जा सकती है।
हालांकि 11 जून को डिप्टी सीएम केशव मौर्य ने संक्षिप्त बयान में संवेदना व्यक्त की, लेकिन प्रश्नों पर मौन ही रख।
ये सिर्फ मौतें नहीं थीं, यह एक सामाजिक-प्रशासनिक विफलता थी
कुंभ सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं होता, वह शासन की परीक्षा भी होता है।
इस परीक्षा में प्रशासन असफल हुआ, और अब असफलता को ढंकने के लिए ‘कैश’ बांटकर, ‘कागज़ों’ से नाम मिटाकर और ‘सवालों’ से किनारा कर, मुआवज़े को मौन का तमाशा बना दिया गया।
सरकार को चाहिए कि:
- सभी मृतकों की आधिकारिक सूची तत्काल प्रकाशित करे
- नकद दिए गए मुआवज़ों की स्रोत, प्रक्रिया और रिकॉर्डिंग की जांच हो
- जिन परिवारों को मुआवज़ा नहीं मिला, उन्हें न्याय मिले
- और सबसे अहम, यह स्वीकारा जाए कि संख्या 37 नहीं, शायद 82 या उससे भी अधिक थी
यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है — यह 82 टूटे हुए घर, दर्जनों अनाथ बच्चे, असहाय वृद्ध और वो माताएं हैं जो अब भी उस भगदड़ में अपनी बेटी की चप्पल ढूंढ रही हैं।