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संपादकीय

कौन कटेंगे, कौन बटेंगे : राजनीति का नया आयाम

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अनिल अनूप

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दिया हुआ नारा, “बंटेंगे तो कटेंगे,” एक साधारण नारे से कहीं अधिक गहरा प्रतीत हो रहा है। राजनीतिक गलियारों में इस नारे की अलग-अलग व्याख्याएं की जा रही हैं, और इसके सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ भी गहराई से समझने की कोशिश हो रही है। यह नारा न केवल चुनावी समीकरणों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि समाज में कुछ खास संदेश भी दे रहा है, जो शायद दूरगामी परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं।

इस नारे का पहला पहलू अगर हिंदू एकता का आह्वान करना है, तो इसके निहितार्थ गंभीर हैं। एक व्यापक समझ यह है कि हिंदू समाज को एकजुट कर एक राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है, ताकि उसका चुनावी लाभ मिल सके। पिछले कुछ वर्षों से हम देख रहे हैं कि हिंदू समाज के विभिन्न हिस्सों में एक अलग ही किस्म की लामबंदी हो रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे प्रमुख है संघ परिवार द्वारा प्रस्तुत विचारधारा, जो हिंदूवाद को राष्ट्रवाद के रूप में पेश करता है। संघ के प्रमुख नेताओं द्वारा लगातार ऐसे विचार प्रस्तुत करना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इसे दोहराना, इसे भाजपा और संघ परिवार के प्रमुख राजनीतिक हथियार के रूप में दर्शाता है।

सवाल यह है कि क्या हम सभी भारतीयों की एकता को ‘हिंदू एकता’ के विशेष फ्रेम में सीमित कर सकते हैं? क्यों राष्ट्रीय एकता से अधिक ‘हिंदू एकता’ पर जोर दिया जा रहा है? क्या अन्य समुदायों – जैसे मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, आदिवासी, और अन्य धर्मों के लोग भारतीय नहीं हैं? क्या वे इस देश का अभिन्न हिस्सा नहीं हैं? संविधान के अनुसार, भारत की विविधता उसकी विशेषता है और सभी जातियों, धर्मों, समुदायों को बराबरी का दर्जा और मताधिकार प्राप्त है। ऐसे में केवल हिंदू समाज के एकजुट होने का विशेष आह्वान भारतीयता के मूल आधार पर सवाल खड़ा करता है।

भारत के चुनावी समीकरण और ‘कटेंगे’ का डर

योगी आदित्यनाथ के इस नारे को भाजपा की चुनावी रणनीति के एक हिस्से के रूप में देखा जा रहा है। हरियाणा और अब महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में इसका प्रयोग हो रहा है, जहां हिंदू मतदाताओं में ध्रुवीकरण करके चुनावी लाभ प्राप्त करने की कोशिश की जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने यह समझ लिया है कि हिंदू समाज के एकजुट होकर वोट करने से उन्हें बड़ी जीत हासिल होती है। इस रणनीति के तहत उन नारे और विचारधाराओं को बढ़ावा दिया जा रहा है जो हिंदू मतदाताओं में एकजुटता का आह्वान करें और उन्हें विभाजन के डर से जोड़ दें।

देश में मुसलमानों की संख्या लगभग 21 करोड़ है। इन मतदाताओं का झुकाव भाजपा की तरफ न होने के कारण, मुस्लिम समुदायों के नाम पर भी कुछ हद तक डर पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। दूसरी ओर, जातीय जनगणना का मुद्दा भी भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती है, और शायद इस नारे का उद्देश्य इसके प्रभाव को निष्क्रिय करना भी है। एक ओर जहां जातीय जनगणना के पक्ष में दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों के वोट बंटते जा रहे हैं, वहीं इस नारे के माध्यम से भाजपा हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने का प्रयास कर रही है ताकि चुनावी लाभ सुनिश्चित किया जा सके।

नारे की भाषा और समाज का असमंजस

यह नारा केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बेहद चिंताजनक है। ‘कटेंगे’ शब्द अपने आप में विभाजन और हिंसा का संदेश देता है, जो समाज में असमंजस और तनाव को बढ़ावा दे सकता है। भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है, जहां हर नागरिक को अपने विचार व्यक्त करने और किसी भी पार्टी को वोट देने का अधिकार है। ‘कटेंगे’ जैसा शब्द समाज में डर और अविश्वास का माहौल पैदा कर सकता है, जो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है। यह नारा लोगों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या किसी विशेष जाति, धर्म, या समुदाय के खिलाफ यह संदेश है? यह नारा समाज को दो हिस्सों में बांटने की कोशिश कर सकता है, जो एक संवेदनशील मसला है।

भारत की एकता और भविष्य

भारत हमेशा से विभिन्न जातियों, धर्मों, और समुदायों का संगम रहा है। यहाँ लगभग 25,000 उपजातियाँ और 3,000 जातियाँ हैं, जो मिलकर भारतीय समाज की विविधता को दर्शाती हैं। यह विविधता भारत की सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन इस तरह के नारे उसे कमजोर करने की दिशा में धकेल सकते हैं। क्या हम यह मान लें कि भारत का लोकतंत्र और समाज केवल हिंदू एकता पर ही निर्भर है? या हमें सभी समुदायों और धर्मों के बीच एकता को बढ़ावा देना चाहिए?

इस नारे का राजनीतिक परिणाम चाहे कुछ भी हो, लेकिन समाज के तौर पर हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या हम केवल चुनावी लाभ के लिए समाज में विभाजन और ध्रुवीकरण का समर्थन कर सकते हैं। क्या यही वह मार्ग है जिस पर हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें चलने की प्रेरणा दी थी? क्या एकता और अखंडता को केवल एक धर्म के विशेष दृष्टिकोण में बाँधा जा सकता है? ये सवाल हमारे समाज और राजनीतिक वर्ग के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, और समय रहते हमें इनके उत्तर खोजने होंगे।

इस नारे के राजनीतिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन हमारी सभ्यता और संस्कृति का आधार एकता और शांति रहा है। ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के आह्वान के बीच, हमें यह याद रखना होगा कि असली ताकत विविधता में एकता में है, और यही भारत की आत्मा है।

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samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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