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आपदा

ऊफ्फ….मैं देवों की राजधानी “बहराइच” जल रहा हूँ….मेरी इतनी सी जान के ऊपर, इतने बंदूक धारी, क्यों दौड़ मचा रहे हैं? कोई तो बचा लो….

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अनिल अनूप

मैं आपकी सभ्यता और संस्कृति को अपने कंधों पर संभाले सदियों से आपकी पीढ़ियों को सिर्फ दुलारते रहने वाला बहराइच हूँ।

मैं आपकी पीढ़ी दर पीढ़ी के अरमानों का आईना लिए आज भी हर चौराहे पर खड़ा रहता हूँ जिसे आप सभी प्यार से आज तक “बहराइच” कहते आए हैं। 

मैं बहराइच, इतिहास की धरा पर आज जलते कोने से उठती अपनी टीस को क्यों झेल रहा हूँ? हमारे चेहरे झुलसा दिए, हमारे साज ओ ऋंगार पर धुएं की परतें डाल दी गई, आखिर क्यों? क्या बिगाड़ रहा था मैं आपका? 

आप तो खुशी खुशी माँ दुर्गा को विदा करने जा रहे थे। मैंने हर कदम पर अपने सीना गर्व से बिछाए, आपको क्या हो गया कि हमारी आन बान के साथ अपनी झूठी शान बघाडने लगे? 

मैं बहराइच, एक ऐसा स्थान जिसका नाम सुनते ही इतिहास की सजीव छवियाँ आँखों के सामने आ जाती हैं। मुझे तो सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा की राजधानी होने का भी सम्मान मिला है। मेरा ही प्राचीन नाम “ब्रहमाइच” था, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर बहराइच बन गया। 

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महर्षि बालार्क की तपोभूमि और राजा सुहेलदेव की न्यायप्रिय राजधानी के रूप में मैं सदियों से अपने महान इतिहास का साक्षी रहा हूँ। इस धरती पर होने वाले सुहेलदेव और मसूद गाजी के ऐतिहासिक युद्ध की गाथाएं आज भी यहाँ की हवाओं में गूंजती हैं। हमने मौर्य, बौद्ध, मुगल और नवाबी काल की अनेक झलकियाँ देखी हैं, और 18वीं शताब्दी में यह अवध के नवाबों द्वारा शासित रहा हूँ। किसानों के एका आंदोलन का केंद्र रहा मैं, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का भी अहम हिस्सा भी रहा हूँ।

लेकिन आज, इस गौरवशाली इतिहास के साये में, मैं,बहराइच जल रहा हूँ। वह धरती, जो कभी समर्पण, संघर्ष और वीरता की कहानियों का गवाह थी, आज हिंसा और नफरत की लपटों में घिर चुकी है। शहर का कोना-कोना दंगों की आग से धधक रहा है। वो गलियां, जिनमें कभी सत्य और शांति की बातें होती थीं, आज वहाँ दंगाई दहाड़ रहे हैं। मंदिरों के शिखर और मस्जिदों के मीनारों के बीच एक खामोश दर्द छुपा है, जो इतिहास की इस गौरवशाली भूमि को अंदर से खा रहा है।

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यह दर्द सिर्फ खून से लाल हुई सड़कों का नहीं है, बल्कि उस ऐतिहासिक विरासत का है जिसे हमने खो दिया है। 

बहराइच, जो कभी धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक था, आज नफरत और विभाजन की आग में झुलस रहा है। फकीर सैयद सालार मसूद और महाराजा सुहेलदेव की लड़ाई का यही वो बहराइच है, जो कभी अपने न्यायप्रिय शासक और सूफी संतों की गाथाओं के लिए जाना जाता था। आज के बहराइच में भी वही संघर्ष हो रहा है, लेकिन इस बार यह संघर्ष भीतर से है। एकता और भाईचारे का टुकड़ा-टुकड़ा हो जाना, उस सांस्कृतिक धरोहर का टूट जाना है जिसे सदियों से संजोया गया था।

यहाँ की मिट्टी अब भी सुहेलदेव की वीरता की कहानियाँ सुनाती है, लेकिन क्या अब कोई सुनने वाला बचा है? क्या कोई उस महात्म्य को समझ पाएगा जो कभी बहराइच की पहचान थी? या फिर इस हिंसा और नफरत की आग में वह सब कुछ जलकर राख हो जाएगा, जो कभी हमारे पूर्वजों ने संजोया था?

आज, बहराइच की धरती आप सभी को पुकार रही है। वो आप सब से पूछ रही है कि क्या हम उसकी महानता को फिर से पहचान पाएंगे? क्या हम फिर से उसके गौरवशाली अतीत को जीवित कर पाएंगे? या फिर उसे दंगों की आग में जलने के लिए छोड़ देंगे?

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