दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
आमतौर पर हम किसी के बुरे हालात को देखते हुए सबसे ज्यादा कहते हैं, “ईश्वर पर भरोसा रखिए, वह मदद करेगा।” लेकिन जब भरोसा इस हद तक ख़त्म हो जाए कि माता-पिता अपने ही बेटे की मौत की गुहार लगाने लगें, तो उनकी अथाह नाउम्मीदी और निराशा को समझ पाना या उसे लिख पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
63 साल के अशोक राना और 60 साल की निर्मला राना ऐसे ही माता-पिता हैं। उनके 30 साल के बेटे हरीश राना की ज़िंदगी बीते 11 साल से एक बिस्तर पर सिमट चुकी है। हरीश ना कुछ बोल सकते हैं, ना कुछ महसूस कर सकते हैं। मेडिकल साइंस की भाषा में इसे ‘वेजिटेटिव स्टेट’ कहते हैं।
निर्मला राना को उम्मीद थी कि एक दिन उनका बेटा ठीक हो जाएगा, लेकिन दिन, महीने और अब 11 साल बीत गए और वह दिन नहीं आया। अब उन्हें यह उम्मीद भी नहीं है कि उनका बेटा कभी ठीक होगा। निर्मला राना और अशोक राना ने बेटे की हालत देख कर बीते साल दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की कि उनके बेटे को यूथेनेशिया यानी इच्छामृत्यु की इजाज़त दी जाए।
एक साल तक चली कानूनी कार्यवाही के बाद बीती 2 जुलाई को कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हरीश राना को किसी ‘मशीन’ के सहारे ज़िंदा नहीं रखा जा रहा है, वे बिना किसी मदद के खुद से सांस ले सकते हैं और वे किसी लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम पर नहीं हैं। “ऐसे में किसी भी फिजिशियन को इजाज़त नहीं है कि वह उन्हें कोई दवा देकर मारे, भले ही यह मौत उन्हें कष्ट से बाहर निकालने के इरादे से ही क्यों न हो।”
बात साल 2013 की है, उन दिनों हरीश राना चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। 5 अगस्त 2013 को शाम के सात बजे अशोक राना को चंडीगढ़ से एक फोन आया और कहा गया, “हरीश राना गिर गए हैं और उन्हें चोट आई है।”
पता चला कि हरीश राना चंडीगढ़ में जिस पेइंग गेस्ट फैसिलिटी में रह रहे थे, वहां की चौथी मंज़िल से गिर गए और उन्हें गहरी चोट आई है। शुरुआत में उनका इलाज चंडीगढ़ पीजीआई में चला, लेकिन उसके बाद दिल्ली एम्स, कई प्राइवेट अस्पतालों में इलाज हुआ, लेकिन परिवार के लिए और हरीश के लिए कुछ नहीं बदला।
हरीश राना इस हालत में कैसे पहुंचे
अशोक राना कहते हैं, “डॉक्टर ने हमें कहा कि इसके दिमाग की नसें पूरी तरह सूख गई हैं, यहां तक कि उन्होंने यह भी कहा कि सिटी स्कैन भी करवाने की ज़रूरत नहीं है। हम कहां नहीं ले गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हम सुनते हैं, अखबारों में पढ़ते हैं चमत्कार के बारे में। हमारे साथ न दुआओं ने काम किया और न ही दवाओं ने।”
बेटे के इलाज के लिए उन्हें दिल्ली के द्वारका में अपना मकान भी बेचना पड़ा। वह मकान जो साल 1988 से उनका घर था। अब वे गाज़ियाबाद के एक दो कमरे के फ्लैट में रहते हैं। अब इस परिवार के लिए बेटे का इलाज कराना मुश्किल हो गया है। अशोक राना ने ताज केटरिंग में नौकरी की और अब रिटायर होने के बाद उन्हें हर महीने 3600 रुपये की पेंशन मिलती है।
घर का खर्च और बेटे के इलाज के लिए वे शनिवार और रविवार के दिन गाज़ियाबाद के क्रिकेट ग्राउंड में सैंडविच और बर्गर बेचते हैं। वे कहते हैं, “अब नहीं होगा…हम कहां से लाएं इतने पैसे। हमने दो महीने के लिए बेटे की देखभाल के लिए नर्स रखी थी, वह 22 हज़ार रुपये ले रही थी। नहीं दे पाए हम उसे पैसे।”
रुंधे हुए गले से वे कहते हैं, “कौन मांग सकता है अपने बेटे की मौत…जब यह सोचता हूं तो रात को नींद नहीं आती, लेकिन क्या करूं और कब तक कर पाऊंगा।”
हरीश के माता-पिता चाहते हैं कि अगर न्याय व्यवस्था के अनुसार उनके बेटे को इच्छामृत्यु नहीं मिल सकती, तो उन्हें किसी अस्पताल में सरकारी खर्चे पर रखा जाए।
निर्मला देवी की अपील
हरीश की मां निर्मला देवी ने ही सबसे पहले कोर्ट में इच्छामृत्यु की अपील करने की इच्छा ज़ाहिर की थी। सालों से वे ही अपने बेटे की देखभाल कर रही हैं। जब हम उनसे मिले, तो दोपहर का एक बज रहा था और उन्होंने बताया कि तब तक उन्होंने खाने का एक निवाला तक नहीं खाया था। बेटे का बिस्तर बदलने से लेकर उसके कपड़े धोने और सालों तक बिस्तर पर पड़े रहने से बेटे की पीठ पर जो घाव हो गए हैं, उनकी पट्टी करने में ही आधा दिन बीत गया।
अशोक और निर्मला राना की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारे समाज और न्याय व्यवस्था में ऐसे कठिन हालातों के लिए कोई समाधान है? यह कहानी केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि उन सभी परिवारों की है जो अपने प्रियजनों के इलाज और देखभाल के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह हमें याद दिलाती है कि हमें संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ ऐसे मुद्दों पर सोचने और समाधान निकालने की आवश्यकता है।
एक मां के लिए अपने बेटे की इच्छामृत्यु मांगना कितना कठिन हो सकता है, इसे समझना बेहद मुश्किल है। निर्मला की आंखों में आंसू चमक रहे हैं और उनके हल्के गुलाबी दुपट्टे से आंसू पोंछते हुए वह कहती हैं, “जो हमारे साथ हो रहा है, वह भगवान किसी के साथ न करे। मैं थक गई हूं… मुझे डर है कि अगर मुझे कुछ हो जाए तो इसका ध्यान कौन रखेगा। हम इसके अंगों को दान करना चाहते हैं। इसके जो अंग अब इसके काम नहीं आ रहे हैं, वे दूसरों के काम आ सकें, हमें उसी में अपने बेटे को देखना होगा, लेकिन इसे मुक्ति मिल जाए।”
हरीश का खाना अब फूड पाइप के ज़रिए दिया जाता है। यह पाइप इंडोस्कोपी के ज़रिए उनके पेट में डाला जाता है, जिसका खर्चा लगभग 15 हज़ार रुपये तक आता है। हर महीने हरीश का मेडिकल खर्च कम से कम 25-30 हज़ार रुपये है। दोपहर के तीन बजे हैं, और निर्मला मूंग दाल और सब्जियों का मिश्रण तैयार कर रही हैं, जिसे फूड पाइप के ज़रिए हरीश को दिया जाएगा।
इस मिश्रण में वह काली मिर्च और घी डाल रही हैं। मैंने उनसे पूछा, “ये घी और काली मिर्च क्यों?”
निर्मला ने जवाब दिया, “थोड़ा स्वाद आ जाएगा।”
मैंने कहा, “लेकिन स्वाद का अहसास तो उन्हें सालों पहले बंद हो गया, उन्हें तो पाइप से खाना दिया जा रहा है।”
निर्मला मुरझाई सी मुस्कान के साथ कहती हैं, “हां, फिर भी मन नहीं मानता।”
यूथेनेशिया
यानी इच्छामृत्यु एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिसके सामाजिक और नैतिक प्रभाव हो सकते हैं। इस पर कोई भी फैसला लेना कोर्ट के लिए एक बड़ा चैलेंज होता है। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु पर एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया था, जिसमें राइट टू डाई विद डिग्निटी यानी सम्मान के साथ मरने का अधिकार मौलिक अधिकार माना गया। इस निर्णय के तहत पैसिव यूथेनेशिया को कानूनी मान्यता दी गई, जो कि ऐसे मामलों में लागू होती है जब कोई मरीज बिस्तर पर सालों से पड़ा हो, कोमा में हो, और उसके ठीक होने की संभावना पूरी तरह समाप्त हो चुकी हो।
पैसिव यूथेनेशिया में जीवन समर्थन प्रणाली को हटाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए मरीज के परिवार की सहमति और हाई कोर्ट की इजाज़त आवश्यक है। लेकिन एक्टिव यूथेनेशिया, जिसमें दवा के ज़रिए मौत दी जाती है, भारत में अभी भी गैर-कानूनी है।
हरीश के वकील, मनीष जैन, बताते हैं, “हमने कोर्ट से अपील की थी कि एक मेडिकल पैनल का गठन किया जाए जो यह निर्धारित करे कि यूथेनेशिया देना उचित है या नहीं। लेकिन कोर्ट ने कहा कि मरीज लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर नहीं है, हालांकि फूड पाइप भी लाइफ सपोर्ट ही है। कोर्ट ने केवल हमदर्दी जताई, लेकिन निर्णय हमारे हक में नहीं आया। अब हमें सुप्रीम कोर्ट जाना होगा। अगर यूथेनेशिया नहीं दे सकते तो अच्छे अस्पताल में उनका इलाज कराया जाए।”
दुनिया में कुछ देशों में ही यूथेनेशिया की इजाज़त है जैसे स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, स्पेन, कनाडा, कोलंबिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और अमेरिका के 11 राज्य। लेकिन ज़्यादातर देशों में यह गैर-कानूनी है, और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी इसकी इजाज़त नहीं है।
भारत में इस मुद्दे पर पहला बड़ा केस साल 2011 में आया जब सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई के किंग एडवर्ड्स मेमोरियल अस्पताल की नर्स अरुणा शनबाग के मामले में एक मेडिकल पैनल का गठन किया। पैनल ने रिपोर्ट दी कि शनबाग के जीवन समर्थन प्रणाली को हटाया जा सकता है क्योंकि उनके ठीक होने की संभावना पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। लेकिन अस्पताल के स्टाफ ने पैसिव यूथेनेशिया पर सहमति नहीं दी, और इस कारण अरुणा शनबाग के केस में इसे लागू नहीं किया गया। अरुणा शनबाग की मृत्यु 2015 में हुई।
अब लगभग एक दशक बाद, यह बहस फिर से तेज हो गई है कि राइट टू डाई विद डिग्निटी को कैसे संरक्षित किया जा सकता है। हरीश जैसे लोग, जो अपनी इच्छाएं नहीं व्यक्त कर सकते, उनकी ज़िंदगी और मौत का फैसला कौन करेगा?
डॉ. आरआर किशोर, जो सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और इंडियन सोसाइटी फॉर हेल्थ एंड लॉ एथिक्स के अध्यक्ष हैं, मानते हैं, “लोगों का मानना है कि ईश्वर ने जीवन दिया है, और उन्हें ही इसे लेने का अधिकार है। इसमें एक अनिश्चितता बनी रहती है—अगर वे होश में नहीं हैं तो कल को होश में आ सकते हैं। लेकिन अगर हम किसी की मौत का कारण बन जाएं, तो हम उनके ठीक होने का मौका भी छीन लेते हैं। इस मामले में, मुझे हाई कोर्ट के फैसले से सहमति नहीं है।”
किशोर का कहना है कि भारत जैसे समाज में यूथेनेशिया पर कानून बनाना चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि परिवार अपने हितों के लिए इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। समाज में संपत्ति को लेकर अपराध होने की घटनाओं को देखते हुए, ऐसे आदेश हर केस के आधार पर दिए जाने चाहिए।
हरीश, जो कभी इंजीनियर बनना चाहते थे, बॉडी बिल्डिंग का शौक रखते थे, और घर के बड़े बेटे थे, अब एक याद बनकर रह गए हैं। निर्मला कहती हैं, “मुझे याद आता है कि वह घर में चक्कर लगाते रहते थे, बॉडी बनाने का बहुत शौक था। हमेशा आकर कहते थे, ‘मेरी बाजुओं को नापिए’। आज वही बॉडी खत्म हो गई।”
हरीश का बिस्तर जिस कमरे में है, वहां की दीवार पर एक घड़ी टंगी है और पास में एक कैलेंडर लटका है। घड़ी की सुईयां चल रही हैं और कैलेंडर के पन्ने बदल रहे हैं, लेकिन इस घर में समय पिछले 11 सालों से ठहरा हुआ है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."