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संपादकीय

अमीरों की बढ़ती आमदनी गरीबों के निवाले पर भारी ; भूखी देश की आधी आबादी

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अनिल अनूप

महंगाई का सीधा असर आम उपभोक्ता के घरेलू खर्चों पर पड़ता है। इसलिए यह हैरानी का विषय नहीं कि थोक और खुदरा महंगाई की बढ़ी दरों के साथ ही उपभोक्ता व्यय के आंकड़े भी बढ़े हुए आए हैं। सरकार द्वारा जारी 2022-2023 की घरेलू खर्च रपट के मुताबिक देश के करीब आधे लोगों को तीन वक्त का भोजन नहीं मिल पाता। गांवों और शहरों में रहने वाले लोगों के बीच यह अंतर बहुत मामूली है। करीब आधी आबादी नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन नियमित नहीं कर पाती।

इसकी वजह केवल बढ़ी हुई महंगाई नहीं, बल्कि आय में बढ़ती विषमता है। देश के शीर्ष पांच फीसद अमीर और पांच फीसद सबसे अमीर लोगों के घरेलू खर्च में करीब बीस गुना का अंतर है। पांच फीसद सबसे गरीब ग्रामीण लोगों का औसत घरेलू खर्च 1373 रुपए और पांच फीसद शीर्ष शहरी अमीरों का घरेलू खर्च 20824 रुपए है। इसे लेकर स्वाभाविक ही विपक्ष को सरकार पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। 

कांग्रेस ने पिछले दस वर्षों में बढ़ी हुई आय संबंधी विषमता का आंकड़ा पेश करते हुए सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की है।

घरेलू खर्च में बढ़ोतरी और गरीब तथा अमीर के उपभोग व्यय में भारी अंतर आर्थिक विसंगतियों को रेखांकित करता है। महंगाई और घरेलू खर्च बढ़ने से लोगों को तब परेशानी नहीं होती, जब उसी अनुपात में उनकी आमदनी बढ़ी हो। मगर पिछले पांच-सात सालों में लोगों की क्रयशक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है। 

कोरोना काल के बाद लाखों लोगों की नौकरियां और रोजगार छिन गए, इससे उन्हें घर का खर्च चलाना मुश्किल है। तिस पर बढ़ती महंगाई मुसीबतों का पहाड़ बन कर टूटती है।

दूसरी तरफ, अमीर लोगों का घरेलू खर्च बढ़ रहा है। यानी उनकी आमदनी भी बढ़ रही है। इससे बाजार में भी विसंगतियां पैदा होती हैं। केवल अमीर लोगों के बल पर कोई बाजार नहीं टिक पाता। 

अमीरों की आमदनी बढ़ने से ऐशो-आराम की वस्तुओं की बिक्री जरूर बढ़ जाती है, मगर आम उपभोक्ता के बल पर खड़े खुदरा बाजार को निरंतर संघर्ष करते रहना पड़ता है। 

पिछले कुछ वर्षों में सृजित कुल संपत्ति का करीब चालीस फीसद हिस्सा देश के केवल एक फीसद लोगों के पास गया है। देश की सत्तर करोड़ आबादी की कुल संपत्ति के बराबर हिस्सा कुल इक्कीस अमीरों के पास है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था में बढ़ते एकाधिकार की वजह से महंगाई बढ़ रही है। मगर सरकार इस विसंगति को दूर करने को लेकर गंभीर नजर नहीं आती। 

विचित्र है कि एक तरफ तो देश को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में रेखांकित किया जाता है। कुछ वर्षों में देश के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दावा किया जा रहा है। इसके विकसित देशों की श्रेणी में शुमार होने की उम्मीद जताई जा रही है। मगर इसके बरक्स दूसरी तस्वीर यह है कि देश की आधी आबादी तीन वक्त का भोजन नहीं जुटा पाती।

सरकार खुद इसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में रेखांकित करती है कि वह अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध करा रही है। जब तक लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ती और आय की असमानता दूर नहीं होती, तब तक संतुलित आर्थिक विकास की उम्मीद करना मुश्किल बना रहता है। इसके लिए नए रोजगार सृजित करने और वेतन-भत्तों के मामले में व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत होती है, जिसका अभाव लंबे समय से देखा जा रहा है।

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samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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