चुनाव २०२४विचार

खामोश चुनाव के गूंजते मायने ; कई मामलों में अप्रत्याशित रहा प्रथम चरण का मतदान

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अंतर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतंत्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिकस्वतंत्रता प्रदान करती है। आज भारत में जो परिस्थिति है उससे जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकत्र्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधानमंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे जबकि जमीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है।

आम चुनाव, 2024 के प्रथम चरण का मतदान कई मायनों में अप्रत्याशित रहा है। कुल मतदान शनिवार की रात्रि 11 बजे तक करीब 65.5 फीसदी रहा। यह 2019 की तुलना में 4 फीसदी कम रहा है। सबसे अधिक मतदान संघशासित क्षेत्र लक्षद्वीप में 84.16 फीसदी किया गया। 

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पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और सिक्किम में 80 फीसदी से ज्यादा मतदान हुए, लेकिन फिर भी 2019 की तुलना में 2 फीसदी तक कम हुए। सिर्फ छत्तीसगढ़ में 2 फीसदी मतदान ज्यादा किया गया। जम्मू-कश्मीर सरीखे संवेदनशील क्षेत्र में 68.27 फीसदी मतदान शानदार माना जा सकता है, लेकिन वहां भी 2019 से 1.88 फीसदी मतदान कम हुआ। 

सबसे कम मतदान बिहार की सीटों पर 49 फीसदी से कुछ ज्यादा रहा, लेकिन 4 फीसदी कम मतदाता वोट देने घर से निकले। उप्र और उत्तराखंड जैसे भाजपा वर्चस्व के राज्यों में 5-6 फीसदी मतदान कम किया गया। 

मध्यप्रदेश, राजस्थान और मिजोरम आदि राज्यों में अपेक्षाकृत कम मतदान हुआ। इनसे भाजपा के 370 और 400 पार वाले लक्ष्यों को ठेस पहुंच सकती है, क्योंकि भाजपा उत्तरी भारत में ही शानदार जनादेश के भरोसे है।

दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में सब कुछ अनिश्चित है। हालांकि मध्यप्रदेश में 67.76 फीसदी मतदान हुए, लेकिन ये 7.31 फीसदी कम रहे। 

क्या मतदाताओं में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को जनादेश देने का उत्साह और जुनून कम हो गया है? पूर्वोत्तर में दो विरोधाभास उभर कर सामने आए हैं। 

मणिपुर में हिंसा के बावजूद 72.17 फीसदी लोगों ने मताधिकार का इस्तेमाल किया, लेकिन टूटी ईवीएम, लुटे बूथ, फटी वीवीपैट पर्चियों के चित्र मणिपुर में ही देखे गए हैं, जिनसे मतदान के दौरान हालात के अनुमान लगाए जा सकते हैं। 

पूर्वोत्तर में ही नागालैंड राज्य में 4 लाख मतदाताओं से अधिक, राज्य के करीब 30 फीसदी वोटरों ने, 6 जिलों की 20 विधानसभा सीटों पर, बहिष्कार के कारण एक भी वोट नहीं डाला। वे अधिक स्वायत्तता वाले अलग क्षेत्र की मांग करते रहे हैं और केंद्र सरकार फिलहाल उसमें नाकाम रही है, लिहाजा उन्होंने चुनाव के बहिष्कार का आह्वान किया था। 

फिर भी 56.91 फीसदी मतदान हुआ। बेशक 2019 की तुलना में वह 26 फीसदी कम रहा। मणिपुर में भी 10.52 फीसदी मतदान कम हुआ। समग्रता में देखें, तो आम चुनाव के प्रथम चरण में 16 करोड़ से अधिक मतदाताओं को मताधिकार का इस्तेमाल करना था, लेकिन 6.12 करोड़ भारतीयों ने वोट ही नहीं डाले। यह चुनाव के प्रति उदासीनता है या मतदाताओं को चुनाव दिशाहीन, अर्थहीन लगते हैं? यह सोच लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ भी है। जितना मतदान किया गया है, वह न तो सरकार के खिलाफ माना जा सकता है और न ही विपक्ष को चुनने के प्रति उत्साही और उत्सुक लगता है।

किसी भी तरफ ‘लहर’ महसूस नहीं हुई। ऐसा लगता है मानो औसत मतदाता ने यह धारणा बना ली है कि मोदी को ही आना है! यह सोच कर ही मतदाता पोलिंग स्टेशन से तटस्थ रहा है। 

कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों की खबरें सामने आई हैं कि उन्होंने भी मोदी को ही तीसरी बार प्रधानमंत्री मान लिया है, लिहाजा कोई भी ध्रुवीकरण दिखाई नहीं दिया। हमने मतदान के इस चरण को ‘खामोश और भ्रमित चुनाव’ माना है। 

कुछ जगह की खबरें हैं कि भाजपा के जिन कार्यकर्ताओं और नेताओं पर मतदान कराने और चुनावी जीत तय कराने की जिम्मेदारी थी, वे आराम से पंचतारा होटल में खाना खाते रहे। यदि ऐसा है, तो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और उनके आह्वान दांव पर लगते हैं। इस चरण से पहले 38 फीसदी पात्र युवाओं ने ही निर्वाचन आयोग में अपना पंजीकरण कराया। साफ है कि युवा चुनाव के प्रति उत्साही नहीं है। 

बहरहाल अभी तो मतदान के छह और चरण शेष हैं। गर्मी का मौसम भी ज्यादा गर्म और लू वाला होना है। कई जगह मई में ही बारिश की शुरुआत हो सकती है, लिहाजा मौसम के कारण इतना मतदाता घर से न निकले, समझ में नहीं आता। 

हमें लगता है कि चुनाव प्रधानमंत्री मोदी पर ही केंद्रित रखा गया है, लिहाजा बेरोजगारी, महंगाई, राम मंदिर सरीखे मुद्दे शांत से लगते रहे। क्या मतदान का यह ‘ठंडापन’ यहीं समाप्त होगा, यह अहम सवाल है। नागालैंड में बड़े पैमाने पर चुनाव का बहिष्कार लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है। इस राज्य की मांगों पर सहानुभूति के साथ विचार होना चाहिए था। न जाने केंद्र सरकार कब तक मणिपुर व नागालैंड जैसे राज्यों की अनदेखी करती रहेगी।

samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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