आजमगढ़, जो कभी समाजवादी पार्टी का अभेद्य गढ़ माना जाता था, अब वहां अखिलेश यादव की राजनीतिक पकड़ ढीली पड़ती दिख रही है। इस विस्तृत संपादकीय आलेख में जानिए आजमगढ़ में सपा की वर्तमान स्थिति, चुनौतियां, और अखिलेश यादव की रणनीतिक विफलताएं व संभावनाएं।
जगदंबा उपाध्याय की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में पूर्वांचल का विशेष महत्व रहा है। इस क्षेत्र में स्थित आजमगढ़ जिले को लंबे समय तक समाजवादी पार्टी (सपा) का मजबूत गढ़ माना गया है। यहां की जनता ने दशकों तक सपा को आंख मूंदकर समर्थन दिया, और इस समर्थन का सबसे बड़ा प्रतीक रहे हैं अखिलेश यादव। हालांकि, हालिया घटनाक्रम, उपचुनावों के नतीजे और बदलता जनमत यह संकेत देने लगे हैं कि अब सपा का यह गढ़ डगमगाने लगा है।
पृष्ठभूमि: समाजवादी पार्टी और आजमगढ़ का रिश्ता
आजमगढ़ और सपा के रिश्ते की नींव मुलायम सिंह यादव के दौर में पड़ी थी, जिसे अखिलेश यादव ने आगे बढ़ाया। मुस्लिम-यादव समीकरण पर आधारित सपा की रणनीति ने इस क्षेत्र में लंबे समय तक विजय पताका फहराई। 2012 में जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, तब पूर्वांचल की जनता ने उन्हें भविष्य का नेता माना। विशेषकर आजमगढ़ में उन्हें भारी जनसमर्थन मिला, और यह समर्थन 2014 में तब और मजबूत हुआ जब उन्होंने खुद आजमगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की।
हालिया पराजय और चिंताजनक संकेत
लेकिन समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदलने लगीं। 2022 के लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ सीट पर सपा की हार ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी। इस सीट से सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को भाजपा प्रत्याशी दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ ने हरा दिया। यह पराजय केवल एक सीट की हार नहीं थी, बल्कि यह उस विश्वास की दरार थी जो आजमगढ़ की जनता और सपा के बीच दशकों से था।
इस बदलाव के पीछे कारण अनेक हैं
सबसे पहले, अखिलेश यादव की क्षेत्रीय अनुपस्थिति को जनता ने बेहद गंभीरता से लिया। उन्होंने आजमगढ़ से सांसद बनने के बाद बहुत कम बार क्षेत्र का दौरा किया। विकास कार्यों की कमी, ज़मीनी मुद्दों की अनदेखी, और स्थानीय नेताओं की निष्क्रियता ने सपा की छवि को नुकसान पहुंचाया।
दूसरे, भाजपा की रणनीतिक पकड़ मजबूत होती गई। हिंदुत्व और विकास के दोहरे एजेंडे पर चलती भाजपा ने पूर्वांचल में अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि का असर आजमगढ़ तक पहुंचा। भाजपा ने पिछड़ी जातियों और दलित वर्गों में अपनी पैठ बना ली, जो पहले सपा का वोटबैंक हुआ करता था।
इसके अतिरिक्त, आजमगढ़ के मतदाताओं में अब नई सोच उभर रही है। युवा मतदाता केवल जातीय समीकरण नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा, और विकास के मुद्दों पर वोट करने लगे हैं। यहीं पर अखिलेश यादव की राजनीति पिछड़ती नजर आती है। उनके भाषणों में पुराने समाजवादी नारे तो होते हैं, लेकिन ठोस योजना और रोडमैप की कमी महसूस की जाती है।
ट्रांजिशन पॉइंट पर बात करें तो, यदि हम 2024 के लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि सपा को अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करना होगा।
क्या अखिलेश यादव ने गलती की?
निश्चित ही, कुछ रणनीतिक और राजनीतिक चूकों ने आजमगढ़ में सपा की स्थिति को कमजोर किया। उदाहरण के लिए, जब उन्होंने खुद आजमगढ़ से चुनाव न लड़कर मैनपुरी से अपनी पारिवारिक सीट को प्राथमिकता दी, तो यह संदेश गया कि वे आजमगढ़ को अब प्राथमिकता नहीं देते। यह भावनात्मक जुड़ाव का नुकसान था, जिससे भाजपा ने फायदा उठाया।
इसके अलावा, अखिलेश यादव का भाजपा विरोध का तरीका भी अब पुराने ढर्रे पर चल रहा है। वे बार-बार ईवीएम पर सवाल उठाते हैं, प्रशासन पर अंगुली उठाते हैं, लेकिन जनता अब ठोस मुद्दों और समाधान की अपेक्षा रखती है।
फिर भी, क्या यह लड़ाई खत्म हो गई है?
बिल्कुल नहीं। राजनीति संभावनाओं का खेल है। आजमगढ़ में सपा की जड़ें अब भी कमजोर नहीं हुई हैं, बल्कि सिर्फ अस्थिर हुई हैं। वहां मुस्लिम, यादव, और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की बड़ी संख्या अब भी सपा के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई है। यदि अखिलेश यादव इस भावनात्मक जुड़ाव को फिर से मजबूत कर लें और जमीनी स्तर पर सक्रियता बढ़ाएं, तो हालात पलट सकते हैं।
भविष्य की राह
अब जरूरी यह है कि अखिलेश यादव अपने राजनीतिक दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव लाएं। सिर्फ विरोध की राजनीति से ऊपर उठकर उन्हें विकास, शिक्षा, रोजगार, महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को केंद्र में लाना होगा। साथ ही, आजमगढ़ और अन्य क्षेत्रों में स्थानीय नेतृत्व को सशक्त करना भी अनिवार्य है।
इसके अलावा, यदि वे पूर्वांचल के अन्य जिलों जैसे मऊ, बलिया, गाजीपुर, देवरिया को जोड़कर एक व्यापक क्षेत्रीय पुनर्गठन करें और इन जिलों को सपा की राजनीतिक प्रयोगशाला बनाएं, तो सपा को आजमगढ़ में ही नहीं, बल्कि समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक नई ऊर्जा मिल सकती है।
आजमगढ़ में अखिलेश यादव की स्थिति निस्संदेह कमजोर हुई है, लेकिन अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। राजनीति में हार के बाद सुधार की संभावनाएं होती हैं। सपा को यदि आजमगढ़ को फिर से अपना गढ़ बनाना है, तो उसे जमीनी स्तर पर बदलाव लाने होंगे, जनता से संवाद मजबूत करना होगा, और नेतृत्व को अधिक सक्रिय, पारदर्शी और जनोन्मुखी बनाना होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि, यदि अखिलेश यादव ने समय रहते सबक लिया और सक्रियता दिखाई, तो आजमगढ़ में उनका सूरज फिर से चमक सकता है। लेकिन अगर वे वर्तमान शैली में ही राजनीति करते रहे, तो यह गढ़ केवल अतीत की याद बनकर रह जाएगा।