भारत-पाक युद्धविराम के पीछे की सच्चाई क्या है? क्या भारत ने आतंक के खिलाफ अपने लक्ष्य हासिल किए? जानें कैसे पाकिस्तान ने फिर दिखाया अपना असली चेहरा, और क्यों यह टकराव एक निर्णायक मोड़ बन सकता था।
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
अंतत: भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम की घोषणा हो गई, लेकिन इसे पूर्णतः लागू करने की सच्चाई अब भी संदेह के घेरे में है।
दरअसल, भारतीय सेनाओं की निर्णायक कार्रवाई में पाकिस्तान के छह प्रमुख एयरबेस, एयर डिफेंस और रडार सिस्टम समेत लगभग 25 प्रतिशत वायुसेना के बुनियादी ढांचे को ध्वस्त कर दिया गया। इस अभूतपूर्व आक्रमण से पाकिस्तान को घुटनों पर आना पड़ा।
इस बीच, अमेरिका को खुफिया सूत्रों से यह संकेत मिल चुके थे कि यह संघर्ष लम्बे युद्ध में बदल सकता है। इसी आशंका के चलते, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सार्वजनिक बयान से पहले ही शनिवार सुबह 9 बजे पाकिस्तान के डीजीएमओ मेजर जनरल कशीफ अब्दुल्ला ने भारत के समकक्ष लेफ्टिनेंट जनरल राजीव घई से हॉटलाइन पर संपर्क कर युद्धविराम की गुहार लगाई।
दोपहर 3:35 बजे दोनों अधिकारियों के बीच एक और बातचीत के बाद युद्धविराम पर प्रारंभिक सहमति बनी। यद्यपि अमेरिका इस युद्धविराम में अपनी मध्यस्थता का श्रेय लेना चाहता है, लेकिन न भारत सरकार और न ही भारतीय जनमानस इसे स्वीकार करता है। यह संवाद केवल भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ।
इसके बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार और भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने क्रमशः प्रेस वार्ता कर युद्धविराम की घोषणा की। शाम 5 बजे से यह युद्धविराम लागू भी कर दिया गया।
लेकिन जैसे ही रात गहराई, पाकिस्तान की फितरत एक बार फिर सामने आ गई। ड्रोन हमलों का सिलसिला शुरू हो गया। श्रीनगर के सेना मुख्यालय और एयरपोर्ट को निशाना बनाया गया। ऐतिहासिक लाल चौक के ऊपर ड्रोन मंडराते देखे गए। धमाकों की आवाजें गूंजने लगीं।
इस पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को कहना पड़ा— “यह कैसा युद्धविराम है? विस्फोट की आवाजें साफ सुनाई दे रही हैं, एयर डिफेंस सिस्टम सक्रिय हो गया है।”
इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने पंजाब, राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती इलाकों में भी ड्रोन हमले किए। हालांकि भारतीय वायुसेना ने इन हमलों को हवा में ही नाकाम कर दिया।
अब सवाल उठता है—क्या यही युद्धविराम की सच्चाई है?
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत ने आतंकवाद के विरुद्ध अपने ठोस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया? और यदि भविष्य में कोई बड़ा आतंकी हमला होता है, तो क्या भारत उसे ‘युद्ध’ मानकर उसी तरह की सशक्त प्रतिक्रिया देगा?
भारतीय सेना ने आतंकियों के ठिकानों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया और 100 से अधिक आतंकियों को ढेर किया, जो निश्चित रूप से एक बड़ी सफलता है। फिर भी, आतंक का सरगना—पाकिस्तान—पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ।
पाकिस्तानी वायुसेना का ढांचा दोबारा खड़ा किया जा सकता है। चीन और तुर्किये जैसे सहयोगी देश रडार सिस्टम और एयर डिफेंस को फिर से स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। वहीं IMF ने पाकिस्तान को एक अरब डॉलर का कर्ज भी मंजूर कर दिया है—हालांकि यह धनराशि हथियारों के लिए नहीं है, परन्तु पाकिस्तान की पुरानी आदतों को देखते हुए इसका दुरुपयोग संभव है।
इस बार भारत के पास एक ऐतिहासिक मौका था। ऐसी निर्णायक स्थिति भविष्य में शायद ही दोबारा मिले। पाकिस्तान की सेना को लगभग निष्क्रिय किया जा सकता था।
इतना ही नहीं, भारत वैश्विक स्तर पर यह मांग भी उठा सकता था कि पाकिस्तान जैसे गैर-जिम्मेदार राष्ट्र से ‘परमाणु शक्ति’ छीनी जाए। ‘इस्लामी परमाणु बम’ की अवधारणा को लेकर भारत एक अंतरराष्ट्रीय विमर्श शुरू कर सकता था।
दुर्भाग्यवश, यह अवसर अधूरा रह गया। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पूरी तरह से अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाया।
भारत न तो युद्धोन्मादी है, और न ही हम युद्ध के पक्षधर हैं। लेकिन ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। पाकिस्तान को 2003 और 2021 में भी युद्धविराम के बावजूद उल्लंघन करते हुए देखा गया है।
ऐसे में यह प्रश्न प्रासंगिक हो उठता है—क्या भारत को इस बार निर्णायक भूमिका नहीं निभानी चाहिए थी?
फिलहाल, हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्णय का सम्मान करते हैं और उनके संभावित राष्ट्रीय संबोधन की प्रतीक्षा करते हैं, जिसमें शायद इस अधूरे संघर्ष की स्पष्टता सामने आए।