हास परिहास

आओ, नेता-नेता खेलें!!

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भारत के लोकतंत्र का सबसे प्रिय खेल है— नेता-नेता। यह कोई सामान्य खेल नहीं, बल्कि ऐसा जादुई तमाशा है जिसमें जनता मोहरे बन जाती है और असली खिलाड़ी अपने दांव चलते हैं। इस खेल में कोई हारता नहीं, बस कुर्सी से कुछ देर के लिए हटता है और फिर लौटकर आता है, मानो सर्कस में ट्रैपेज़ आर्टिस्ट हो जो गिरकर भी मुस्कुराते हुए वापस हवा में झूल जाता है।

पहला राउंड: चुनावी रणभूमि

हर पांच साल बाद नेता-नेता खेल की मुख्य प्रतियोगिता होती है— चुनाव। यह वह समय होता है जब जनता को याद दिलाया जाता है कि वह बहुत महत्वपूर्ण है। गली-गली में पोस्टर, ढोल-नगाड़े और नारों की गूंज होती है। नेता अपने कुर्ते की सिलाई तुड़वाकर आम आदमी का लुक अपनाते हैं, गरीबों के घर जाकर उनके साथ खाना खाते हैं, भले ही उसके बाद एंटीसेप्टिक से हाथ धोना न भूलें।

सबसे मज़ेदार होता है घोषणा पत्र! इसमें लिखा जाता है कि अगले पांच साल में गरीबी खत्म कर देंगे, रोजगार की बारिश कर देंगे और भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे। यह और बात है कि पिछला घोषणा पत्र भी कुछ ऐसा ही कहता था, और अगले चुनाव में भी यही लिखा जाएगा। जनता भी जानती है कि यह एक झुनझुना है, मगर बजाने में मज़ा आता है!

दूसरा राउंड: वादों का मेला

एक नेता कहता है, “हर गरीब को घर मिलेगा!” दूसरा नेता बोलता है, “हर नौजवान को नौकरी मिलेगी!” तीसरा जोड़ता है, “हर किसान को दोगुनी आमदनी!”

जनता ताली बजाती है, पर अंदर ही अंदर जानती है कि ये वादे अगले पांच साल तक ‘लोडिंग…’ मोड में रहेंगे। लेकिन फिर भी, लोकतंत्र का उत्सव मनाना जरूरी है!

इस दौरान हर राजनीतिक दल अपने विरोधी को देश का सबसे बड़ा दुश्मन साबित करने में जुट जाता है। चुनाव आते ही पुराने वीडियो, पुराने ट्वीट और पुराने बयान ऐसे निकलने लगते हैं, जैसे दादी पुरानी संदूक से शादी के गहने निकाल रही हो। आरोप-प्रत्यारोप की आंधी चलती है, जनता बस तमाशा देखती है।

तीसरा राउंड: सत्ता का स्वर्ग

जब कुर्सी मिल जाती है, तो खेल का असली आनंद शुरू होता है। मंत्रिमंडल बनता है, विभाग बांटे जाते हैं। हर कोई ‘जनता की सेवा’ के नाम पर अपने लिए सही पद की तलाश करता है। फिर आता है सबसे अहम निर्णय— वेतन बढ़ाने का बिल। यह ऐसा बिल है जो बिना किसी विरोध के तुरंत पास हो जाता है।

इसके बाद शुरू होता है असली तमाशा— ट्विटर पर बयानबाजी, टीवी पर बहस और विपक्ष को कोसना। अगर विपक्ष में बैठे हैं, तो सरकार को निकम्मा साबित करने का मिशन शुरू होता है। और अगर सरकार में हैं, तो पिछली सरकार की गलतियों को गिनाना ही सबसे बड़ा विकास कार्य बन जाता है।

चौथा राउंड: घोटालों की फुलझड़ियां

भारत में लोकतंत्र और घोटाले साथ-साथ चलते हैं, जैसे समोसे और चटनी। कभी कोयला घोटाला, कभी चारा घोटाला, कभी घोड़े खरीदने में घोटाला, और कभी पुल बनाने में घोटाला।

जब घोटाले सामने आते हैं, तो खेल का नया स्तर शुरू होता है— “मैं निर्दोष हूँ! यह विपक्ष की साजिश है!”

फिर जाँच समितियाँ बनती हैं, रिपोर्ट्स तैयार होती हैं, और अंत में सब ठंडे बस्ते में चला जाता है। जो पकड़ा जाता है, वह थोड़े दिन जेल में किताबें लिखकर अपनी छवि सुधार लेता है और फिर अगला चुनाव जीतकर वापसी करता है।

घोटालों के बीच जनता की याद तभी आती है जब मीडिया में हंगामा मचता है। फिर सरकारें ‘सख्त कदम उठाने’ की घोषणा करती हैं और विपक्ष ‘जनता के साथ’ खड़ा होने का दावा करता है। जनता सोचती है— “ये सब मिलकर हमें उल्लू बना रहे हैं!” मगर फिर भी, हम लोकतंत्र के उत्सव में खुशी-खुशी भाग लेते हैं।

पांचवां राउंड: जनता का रोल

इस खेल में जनता की भूमिका सबसे दिलचस्प है। चुनाव के समय जनता राजा होती है, लेकिन चुनाव के बाद वह सिर्फ आंकड़ों का हिस्सा बन जाती है। किसी को रोजगार नहीं मिला? कोई बात नहीं, नया स्कीम लॉन्च कर देंगे। किसान आत्महत्या कर रहे हैं? समाधान— सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि ट्वीट कर देंगे।

जनता हर बार धोखा खाकर भी अगले चुनाव में उम्मीदें पालती है। नेता हर बार नए वादे और नए सपने बेचते हैं, और जनता फिर से वही भरोसा कर लेती है। आखिर, लोकतंत्र में आस्था रखना जरूरी है, वरना ‘एंटी-नेशनल’ कहलाने का खतरा जो रहता है!

फाइनल राउंड: नया नेता, वही खेल

नेता-नेता खेल कभी खत्म नहीं होता, बस चेहरे बदलते हैं। एक दौर में जिन्होंने वादा किया था कि वे राजनीति को सुधार देंगे, वे खुद उसी खेल का हिस्सा बन जाते हैं। जनता फिर से चुनाव के लिए तैयार होती है, फिर से वादों पर विश्वास करती है, और फिर से वही चक्र दोहराया जाता है।

नए नारों, नए पोस्टरों और नए जुमलों के साथ पुराना खेल चलता रहता है। लोकतंत्र में कोई हारता नहीं, हर कोई ‘जनता की सेवा’ के नाम पर अपने फायदे का खेल खेलता है। कभी मंदिर-मस्जिद की लड़ाई, कभी आरक्षण का मुद्दा, कभी सुरक्षा का डर— हर बार एक नया मुद्दा, मगर मकसद वही— कुर्सी की लड़ाई।

निष्कर्ष: खेल जारी रहेगा!

भारत में लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा उत्सव है, और नेता-नेता खेल इसका सबसे मजेदार हिस्सा। यह खेल यूँ ही चलता रहेगा, जनता मोहरे बनती रहेगी, और कुर्सी की लड़ाई कभी खत्म नहीं होगी। तो आओ, नेता-नेता खेलें!

➡️अनिल अनूप

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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