दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
लखनऊ: लोकसभा चुनाव में PDA के जरिए सामाजिक समीकरण साधकर ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव जमीन पर केमेस्ट्री ठीक करने की रणनीति में जुट गए हैं। साल 2027 के विधानसभा चुनाव के पहले अखिलेश की सबसे अधिक नजर पार्टी का परसेप्शन बदलने पर है, जिससे साथ आए वोटरों को सहेजा व नए वोटरों को जोड़ा जा सके। यही वजह है कि संयम, संवाद और कनेक्ट की सीख वह हर बैठकों में दे रहे हैं। पिछले एक दशक में पहली बार है जब समाजवादी पार्टी ने अपने वोट बैंक का न केवल विस्तार किया है, बल्कि उसे बरकरार भी रखा है।
साल 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा को पहली बार 32% से अधिक वोट मिले थे। 2.95 करोड़ से अधिक वोटरों ने ईवीएम पर साइकल का बटन दबाया था। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा को कांग्रेस साथ मिला लेकिन तब साथ लड़े रालोद, सुभासपा, अपना दल (कमेरावादी) सहित कुछ और छोटे दलों ने साथ छोड़ दिया। बावजूद इसके अखिलेश अपनी वोट की पूरी पूंजी बरकरार रखने में सफल रहे। बसपा के साथ ही भाजपा के कोर वोटों में सेंध लगाकर सपा ने विधानसभा चुनाव के अपेक्षा 1% वोटों की बढ़त बनाते हुए 33.59% वोट हासिल किए हैं।
पार्टी को एक बार फिर 2.95 करोड़ से अधिक वोट हासिल हुए हैं। अपने दम पर ही सपा 45% से अधिक विधानसभाओं में आगे रही है। इसलिए, 2027 की तैयारियों को लेकर उम्मीद और हौसला दोनों ही सपा को मिला है।
जिससे सवाल नहीं जवाब बन सके
अखिलेश यादव ने जीत के बाद कार्यकर्ताओं से मुलाकात व सांसदों से संवाद में जमीन से कनेक्ट रहने के साथ ही सतर्कता की नसीहत भी दी है। यह नसीहत व्यवहार, भाषा से लेकर सार्वजनिक आचरण तक से जुड़ी हुई है।
दरअसल, भाजपा की कई सीटों पर पिछड़ने की एक वजह उसके सांसदों का ‘एरोगेंस’ और जनता से दूरी भी थी। अखिलेश इस बीमारी को अपनी पार्टी में नहीं पनपने देना चाहते। सोशल मीडिया के दौर हर में वॉयरल विडियो-ऑडियो भी पार्टी व प्रत्याशी का परसेप्शन बनाते-बिगाड़ते हैं। सपा ने सरकार और विपक्ष में रहते हुए इसका खूब नुकसान झेला है।
साल 2012 में अखिलेश यादव के सीएम की शपथ लेने के दौरान हुए कार्यकर्ताओं से बना परसेप्शन न केवल सरकार में पार्टी के लिए मुसीबत बना था, बल्कि विधानसभा चुनाव में भी कानून-व्यवस्था को भाजपा ने सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर बाजी पलट दी थी।
2022 के विधानसभा चुनाव के समय कार्यकर्ताओं व पार्टी के कोर वोटरों के ‘अतिउत्साह’ व प्रतिक्रिया के चलते हुए सामाजिक ध्रुवीकरण का नुकसान उठाना पड़ा था। लोकसभा चुनाव के प्रचार के बीच भी अखिलेश ने कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग की बात कही थी। सपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, सांसद, पदाधिकारी, कार्यकर्ता सबसे अखिलेश सर्तक रहने को कह रहे हैं जिससे पार्टी सरकार से जवाब मांगने के बजाय अपनों को ही लेकर सवालों में न उलझे।
नए साथ को संभालने की नजर
मुस्लिम-यादव कोर वोटरों तक ही सीमित पार्टी के टैग को अखिलेश ने PDA के प्रयोग से तोड़ दिया है। विधानसभा चुनाव में जहां गैर यादव ओबीसी वोट का विस्तार किया था, लोकसभा में दलित वोटों में पार्टी ने खूब सेंध लगाई है।
1993 में बसपा के साथ हुए गठबंधन के बाद यह पहली बार है जब सपा की ओर इतने बड़े पैमाने पर दलित वोट शिफ्ट हुए हैं। यहां तक की 2019 में मायावती के साथ आने के बाद भी दलित वोटों में बिखराव के कयास लगे थे और नतीजे भाजपा के पक्ष में गए थे। लेकिन, इस बार आरक्षण, संविधान जैसे मसलों को उठाने के साथ ही भागीदारी बढ़ा अखिलेश दलित वोटरों को जोड़ने में सफल रहे।
अब पार्टी की सारी कवायद इस साथ को बरकरार रखने की है। इसलिए, सड़क से सदन पार्टी उनसे जुड़े मुद्दों को आक्रामक ढंग से उठाने की रणनीति पर काम कर रही है। जमीन पर कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों को भी दलित समाज के नेताओं व समाज में प्रभावी लोगों से समन्वय ठीक रखने को कहा गया है। संगठन से लेकर सदन तक पार्टी के दलित समाज के चेहरे इस बार अधिक मुखर दिखेंगे, जिससे साथ स्थायी बन सके।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."